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गौना ताल: प्रलय का शिलालेख


के एक कोने पर गौना गांव था और दूसरे कोने पर दुरमी गांव, इसलिए कुछ लोग इसे दुरमी ताल भी कहते थे। पर बाहर से आने वाले पर्यटकों के लिए यह बिरही ताल था, क्योंकि चमोली-बदरीनाथ मोटर-मार्ग पर बने बिरही गांव से ही इस ताल तक आने का पैदल रास्ता शुरू होता था। ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुंवारी पर्वत से निकलने वाली बिरही समेत अन्य छोटी-बड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था। ताल के मुंह से निकलने वाले अतिरिक्त पानी की धारा फिर से बिरही नदी कहलाती थी। जो लगभग 18 किलोमीटर के बाद अलकनंदा में मिल जाती थी। सन् 70 की जुलाई के तीसरे हफ़्ते ने इस सारे दृश्य को एक ही क्षण में बदल कर रख दिया।

दुरमी गांव के प्रधानजी उस दिन को याद करते हैं, "तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था। पानी तो इन दिनों में हमेशा ही गिरता है, पर उस दिन की हवा कुछ और थी। ताल के पिछले हिस्से से बड़े-बड़े पेड़ बह-बह कर ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे, ताल में उठ रही लहरें उन्हें तिनकों की तरह यहां-से-वहां, वहां-से-यहां फेंक रही थीं। देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढंक गया। अंधेरा हो चुका था, हम लोग अपने-अपने घरों में बंद हो गए। घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी होकर रहेगी।" खबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन उनसे 22 किलोमीटर दूर था। घने अंधेरे ने इन गांव वालों को उस अनहोनी का चश्मदीद गवाह न बनने दिया। पर इनके कान तो सब सुन रहे थे। प्रधानजी बताते हैं।

"रात भर भयानक आवाजें आती रहीं फिर एक ज़ोरदार गड़गड़ाहट हुईं और फिर सब कुछ ठंडा पड़ गया।" ताल के किनारे की ऊंची

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