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माटी, जल और ताप की तपस्या


पास से, यानी अरब सागर से और दूसरी दूर बंगाल की खाड़ी से। दो तरफ से आए बादल भी यहां के कुछ हिस्सों में उतना पानी नहीं बरसा पाते, जितना वे रास्ते में हर कहीं बरसाते आते हैं।

दूर बंगाल की खाड़ी से उठने वाली मानसून की हवा गंगा का विशाल मैदान पार करते-करते अपनी सारी आर्द्रता खो बैठती है। राजस्थान तक आते-आते उसकी झोली में कुछ इतना बचता ही नहीं है कि वह राजस्थान को भी ठीक से पानी दे जा सके। अरब सागर से उठी मानसून की हवा जब यहां के तपते क्षेत्र में आती है तो यहां की गर्मी से उसकी आर्द्रता आधी रह जाती है। इसमें पूरे प्रदेश को तिरछा काटने वाली अरावली की भी भूमिका है।

अरावली दक्षिण-पश्चिम से उत्तर-पूर्व में फैली है। मानसून की हवा भी इसी दिशा में बहती है। इसलिए मानसून की हवा अरावली पार कर पश्चिम के मरुप्रदेश में प्रवेश करने के बदले अरावली के समानांतर बहती हुई वर्षा करती चलती है। इस पर्वतमाला में सिरोही और आबू में खूब वर्षा होती है, कोई 150 सेंटीमीटर। यह मात्रा राज्य की औसत वर्षा से तिगुनी है। यह भाग अरावली के ऊंचे स्थानों में है, इसलिए मानसूनी हवा यहां टकरा कर अपना बचा ख़ज़ाना खाली कर जाती है। और मरुभूमि को अरावली के उस पार छोड़ कर चुक जाता है आज का भूगोल भी।

लेकिन मरुभूमि के समाज की भाषा माटी, वर्षा और ताप की इस नई वैज्ञानिक परिभाषा से बिल्कुल अलग है। इस समाज में माटी, वर्षा

और ताप की तपस्या मिलेगी, और इस तप में जीवन का तेज़ भी है और शीतलता भी। फागुन महीने में होली पर अबीर-गुलाल के साथ ही यहां मरुनायकजी यानी श्रीकृष्ण पीली रेत उड़ाने लगते हैं। चैत माह आते-आते धरती तपने लगती है। नए भूगोल वाले जिस सूरज की गर्मी से यहां सबसे ज़्यादा आतंकित दिखते हैं, उस सूरज का यहां एक नाम पीथ है, और पीथ

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