शहर अपने घरों की छत पर, आंगन में, खेतों में, चौराहों पर और निर्जन में भी बूंदों को संजो लेने के लिए अपनी 'चादर' फैलाए रखता है।
पालर यानी वर्षा के जल को संग्रह कर लेने के तरीके भी यहां बादलों और बूंदों की तरह अनंत हैं। बूंद-बूंद गागर भी भरती है और सागर भी-ऐसे सुभाषित पाठ्य पुस्तकों में नहीं, सचमुच अपने समाज की स्मृति में समाए मिलते हैं। इसी स्मृति से श्रुति बनी। जिस बात को समाज ने याद रखा, उसे आगे सुनाया और बढ़ाया और न जाने कब पानी के इस काम का इतना विशाल, व्यावहारिक और बहुत व्यवस्थित ढांचा खड़ा कर दिया कि पूरा समाज उसमें एक जी हो गया। इसका आकार इतना बड़ा कि राज्य के कोई तीस हज़ार गांवों और तीन सौ शहरों, कस्बों में फैल कर वह निराकार-सा हो गया।
ऐसे निराकार संगठन को समाज ने न राज को, सरकार को सौंपा, न आज की भाषा में 'निजी क्षेत्र को। उसने इसे पुरानी भाषा के निजी हाथ में रख दिया। घर-घर, गांव-गांव लोगों ने ही इस ढांचे को साकार किया, संभाला और आगे बढ़ाया।
पिंडवड़ी यानी अपनी मेहनत और अपने श्रम, परिश्रम से दूसरे की सहायता। समाज परिश्रम की, पसीने की बूंदें बहाता रहा है, वर्षा की बूंदों को एकत्र करने के लिए।
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