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असभ्यता की दुर्गंध में एक सुगंध


नींव से शिखर तक हिंसा, घृणा और लालच में रंगी-पुती यह असभ्यता गजब की सर्वसम्मति से रक्षित है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराएं, प्रणालियां सब इसे टिकाए रखने में एकजुट हैं। छोटे-बड़े सभी देश अपने घर के आंगन को बाजार में बदलने के लिए आतुर हैं। इस बाज़ार को पाने के लिए वे अपना सब कुछ बेचने को तैयार हैं। अपनी उपजाऊ ज़मीन, अपने घने वन, अपना नीला आकाश, साफ़ नदियां, समुद्र, मछलियां, मेंढक की टांगे, और तो और अपने पुरुष, महिलाएं और बच्चे भी। यह सूची बहुत बढ़ती जा रही है। और इन देशों की सरकारों की शर्म घटती जा रही है।

पहले कोई गर्म दूध से जल जाता था तो छाछ भी फूंक-फूंक कर पीता था। अब तो देश के देश विकास के या कहें विनाश के गर्म दूध से जल रहे हैं फिर भी विश्व बैंक से और उधार लेकर, अपना पर्यावरण गिरवी रखकर बार-बार गर्म दूध बिना फूंके पी रहे हैं।

तब ऐसे विचित्र दौर में कोई गांधी विचार की तरफ़ क्यों मुड़ेगा? बीस-तीस बरस पहले कुछ लोग 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी मानते थे। आज लगता है कि यही बात एक भिन्न अर्थ में सामने आएगी। विकास की विचित्र चाह हमें एक ऐसी स्थिति तक ले जाएगी जहां साफ़ पानी, साफ़ हवा, साफ़ अनाज और शायद साफ़ माथा, दिमाग भी खतरे में पड़ जाएगा और तब मजबूरी में संभवतः महात्मा गांधी का नाम लेना पड़ेगा। 'यह धरती हर एक की ज़रूरत पूरी कर सकती है' ऐसा विश्वास के साथ केवल गांधीजी ही कह सकते थे क्योंकि अगले ही वाक्य में वे यह भी बता रहे हैं, कि 'यह धरती किसी एक के लालच को पूरा नहीं कर सकती'। ज़रूरत और लालच का, सुगंध और दुर्गंध का यह अंतर हमें गांधीजी ही बता पाए हैं। गांधीजी कल के नायक थे या नहीं, इतिहास जाने। वे आने वाले कल के नायक ज़रूर होंगे।

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