भाषा में सामने आती हैं, उसकी भाषा से ही उसके हल निकलते हैं।
अन्ततः भाषा यानी केवल जुबान नहीं है, जुबान एक अंग है। लेकिन जीभ
का संचालन दिमाग से होता है। तो एक भाषा विशेष का दिमाग भी बनता
है। वह दिमाग वहां के पर्यावरण और उसके समाज से बनता है। उसमें
उस समाज की सफलता और असफलता भी शामिल होती है। उसमें
उसकी ठोकरों से भी दिमाग बनता है। सफलता के फूल व फल के साथ
असफलता की भी पत्तियां गिरती हैं पतझड़ वाली। वह भी समाज को,
उसकी भाषा को दुबारा खाद बनाकर देती है। अपनी गलतियों से भी
समाज सीखता है। भाषा और समाज का इस तरह से मैं रिश्ता देखता
हूं।
भाषा और पर्यावरण को लेकर अलग से शास्त्र रचने की कोई बहुत गुंजाइश मुझे नहीं दिखती क्योंकि उस भाषा को बोलने वाला समाज उसका शास्त्र रचता ही है। पर माध्यम अलग होता है, जैसे अपने यहां लिखित की उतनी परंपरा नहीं रही। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी अलिखित ही चीजें गई हैं। उसका सबसे अच्छा उदाहरण गजधर परंपरा का है। गजधर का मतलब केवल वास्तुकार नहीं रहा। वो इंजीनियर भी था, वो बाज़ार से कितना पत्थर खरीदना है, किस दाम ख़रीदना है, किस खदान के पास जाना है इसका भी हिसाब लगाना जानता था। एक तरह से आज जिसको हम कंसल्टेंट, कांट्रेक्टर और आर्किटेक्ट कहेंगे, वह इन तीनों का बहुत अच्छा मिश्रण था। और वह काम करवा कर पूरा का पूरा गृहस्थ को सौंपता था। और उसके बाद उसके संबंध काम करके ख़त्म हो गए ऐसा नहीं होता। वो उसके सुख-दुख में भी साथ होता था। एक तरह से शास्त्र तो उसने रचा है, लेकिन अब माध्यम बदल गया है। वह वाचिक परंपरा से हट गया है, अगर उसको कुछ लिखत-पढ़त से मदद मिल सकती है तो एक अच्छे मुंशी नाते इसको दर्ज करना चाहिए। लेकिन अलग से
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