संस्था नहीं मिलेगी। राजस्थान वाली किताब में मैंने एक जगह लिखा है कि समाज ने पानी का जो ढांचा बनाया है उसका आकार इतना बड़ा किया कि वह निराकर हो गया। बड़े-से-बड़े आकार की सबसे अच्छी परिभाषा यही है कि उसको निराकार हो जाना चाहिए। फिर दिखाई न दे। नहीं तो आप कहेंगे हमने पांच गांव में काम किया अब हम पचास में कर रहे हैं। पांच सौ में कर रहे हैं। आकार रोज-रोज बड़ा हो रहा है। पहले पांच हजार का बजट था फिर दस हजार का हो गया, फिर पांच लाख का हो गया, पांच करोड़ का हो गया। फिर सबसे बड़ा आकार इस समय किस संगठन का है? आप बताइए?-हमारी सरकार का, जो 5 लाख गांवों में काम करती है। संस्था कोई भी 500 गांवों से ऊपर की नहीं मिलेगी। सरकार भी 5 लाख गांव की हिफ़ाज़त कहां करती है। ऐसी संस्थाओं और न ऐसी सरकारों को कोई याद रखता है? इसलिए
आंदोलन संस्थाएं और सरकार भी अब बिल्कुल एक-सी हैं, इस समय। उनके स्वभाव में बहुत अंतर नहीं है। भौगोलिक दूरियों में फर्क हो सकता है। राजधानी में बैठी सरकार दो हजार मील दूर दिखती है तो एक गांव के बीच में बैठी स्वयंसेवी संस्था दो कदम की दूरी पर है। पर गांव उन दोनों के मन की दूरी एक-सी है। जब तक हम इसे कम नहीं करेंगे, काम करने की शैली की दूरी कम नहीं करेंगे, हम भी उसी तरह से काम करेंगे और इसीलिए कुछ होता दिखता नहीं।
यह एक बड़ी दुविधा है, हमारे बहुत सारे मित्र इसमें हैं और उनमें से अधिकांश ने इस पूंजी का कोई अच्छा उपयोग करके नहीं दिखाया। लेकिन एक-दो ऐसी भी संस्थाएं है जिन्होंने इस पूंजी का अच्छा उपयोग करके दिखाया है। इसमें से तरुण भारत संघ का नाम लिया जा सकता है। हालांकि आदर्श स्थिति यही कि जिस काम को करना है हम वहीं से उसकी ताक़त भी निकालें और पैसा भी निकालें, बुद्धि भी निकालें। हमारे
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