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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२२९

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अनुपम मिश्र


कर रहे हैं। स्कूल की व्यवस्था कैसी होती थी। कैसे पैसा आता था। मंदिर द्वारा संचालित थे। वे अंग्रेज़ ही इन सबका अच्छा वर्णन कर रहे हैं। उसमें देखें तो यह पता चलता है कि ऐसे विषय बाकायदा पढ़ाए जाते थे। स्वतंत्र समाज के अपने लक्ष्य थे। वह अपना स्कूल चला सकता है, उसमें एक पाठ्यक्रम होना ज़रूरी नहीं है। राजा की आज्ञा की मर्जी से पाठ्यक्रम नहीं बनते थे। प्रजा की ज़रूरत को देख कर पढ़ाई-लिखाई तय होती थी।

किसी एक शिक्षा मंत्री की सील नहीं लगी थी उस पर। तो बहुत सारे विषय इन स्कूलों में नए-नए होते थे। कुछ ओवरलैप करते थे। कुछ गेप्स भी होते थे। उन्होंने लिखा है कि इन पाठशालाओं के अलावा काफ़ी बड़ा हिस्सा घरों में गुरुओं के माध्यम से पढ़ाया जाता था। इसके अलावा तीसरी एक सीढ़ी रही होगी जो केवल मौखिक परंपरा थी गुरु शिष्य परंपरा की। जैसे गजधर परंपरा, जिसको हम उस समय का सिविल इंजीनियर या वास्तुशिल्पकार मान सकते हैं। कुछ लोग काम करते-करते सीखते थे। लिखा-पढ़ी वाली पाठशालाएं भी र्थी और मौखिक व्यावहारिक शिक्षा वाली भी। कौन-सी कितनी ज़्यादा र्थी या कम थीं के बदले मैं यह कहूंगा यह दोनों धाराएं एक-दूसरे की पूरक थीं। लेकिन अचानक अंग्रेज़ों के आने के बाद किस तरह से यह टूटा यह तो अभी एक रहस्य है। मैं उसको नहीं समझा सकता। लेकिन इतना ज़रूर कहूंगा कि अपने सबसे अच्छे समाज सेवक जो बुद्धि में किसी से कम नहीं थे, राजा राममोहन राय जैसे लोगों के मन में भी यह बात आई कि अंग्रेजों के आने से पहले हमारे यहां शिक्षा थी ही नहीं। कितने बड़े पैमाने पर विस्मृति हुई है। हमारे सबसे अच्छे शिक्षाविद भी कहते रहे कि स्त्रियों की शिक्षा नहीं थी। धर्मपाल जी ने 18वीं शताब्दी में मद्रास प्रेसिडेंसी (तमिलनाडु ही नहीं, उसमें केरल और कर्नाटक सब शामिल थे) के स्कूलों की संख्या में स्त्रियों की हाज़िरी बताई है। क्योंकि एक अंग्रेज़ गया है स्कूल में अपने,

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