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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/२३८

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पर्यावरण का पाठ


लिए कि भाई अब तुम जग जाओ, बहुत हो गया। अब जिसको हम मां की ममता वगैरह कहते हैं, प्रकृति ऐसे शब्द कभी-कभी भुला देती है और फिर अच्छी तरह से थप्पड़ भी लगा देती है।

समाज के कुछ हिस्से में यह विवेक हो कि वह सोते हुए को हल्के से हिला कर बता सके कि तुम नींद में चल रहे हो। अगर वह भूमिका बिल्कुल समाप्त हो जाएगी तो समाज टकराएगा, गिरेगा।

आपके विचार में किसी भी स्थान के क्लाइमेटिक सेटअप और पैटर्न एक समाज की जीवन-पद्धति व शैली को निर्धारित व निर्देशित करने में क्या भूमिका अदा करता है?

पूरी भूमिका उसी की होती है मैं तो यह मानता हूं। अगर हम अलग-अलग समाजों के रीति व्यवहार इन सबमें परिवर्तन देखते हैं तो यह कोई दुर्घटना नहीं है। यह अगर वहां पानी बहुतायत है तो उसके कारण पानी की आदतें वैसी होंगी, कमी है तो वैसी होंगी। समुद्र के किनारे हैं तो समुद्र जैसा उसका स्वभाव होगा। पता नहीं ऐसा उदाहरण देना चाहिए या नहीं लेकिन बिहार में बड़ी नदियों के किनारे रहने वाले ब्राह्मण भी मछली खाते हैं और पूरा बंगाल तो खाता ही है। लेकिन बाक़ी इलाक़ों में ब्राह्मण मछली खाने की सोच भी नहीं सकते। उसको मांस मानेंगे। पर बिहार, बंगाल में मछली का नाम है जल तरोई। तरोई तो अपने यहां सब्जी है। बिल्कुल यह जल तरोई है। ऐसे नाम भी देने पड़े उनको। उस इलाके की जो रीति बनती है जो संस्कार बनते हैं, वह वहां हवा, पानी, मिट्टी से बनते है। बर्फ़ के इलाक़े में अलग संस्कार होंगे। लेकिन इसके बाद भी एक कोई समान व्यवहार भी होता है। और उससे आपको लगेगा कि वह आसपास के उन इलाके से भी मेल खाता है। समाज को हम डको जोन में नहीं बांट सकेंगे कि देश में 18 इको ज़ोन है तो 18 संस्कृतियां भी

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