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पर्यावरण का पाठ


गन्ने का भी आता है। कभी-कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग उसे भट्टी में जला देते हैं। भैंसा गाड़ी में लादकर उसे चीनी मिल ले जाने तक का ख़र्चा नहीं निकलता। लेकिन सुबबूल और विलायती बबूल अभी भी टिके हैं। ये दोनों खरपतवार की तरह फैल गए हैं। इतना बड़ा नुकसान हुआ है। इसकी तरफ़ किसी आंदोलन का भी ध्यान नहीं है। संस्थाओं का भी नहीं है।

इन तीनों पेड़ों के बारे में हमेशा यही कहा गया था कि ये बड़ी तेजी से बढ़ते हैं। लेकिन समाज केवल 'तेज़ बढ़ने' के तर्क से नहीं चलता। अच्छे कामों, अच्छे उपयोगी पेड़ों को, संतति को भी धीरज और प्यार के साथ पाल-पोस कर बड़ा करना पड़ता है।

ऐसी चीजों से निपटने के लिए ऐसे विचारों से यानी बीजों से भी बचना पड़ेगा। बीज रूपी विचार से भी बचने की तैयारी होनी चाहिए। बाहर से कोई पेड़ आया है। बाहर से कोई विचार आया है, वह हमको तार ले जाएगा। हमारे पर्यावरण को ठीक कर देगा। वह हमारी सब समस्याएं हल कर देगा, ख़ूब तेज़ी से बढ़ता है। इसलिए लकड़ी की कमी पूरी कर देगा-ऐसे विचार रोकने की आदत होनी चाहिए। एक बार ठिठक जाएं हम उसे सुनकर कि इसकी कोई और अच्छी बात बताओ। अभी तो यह अपनाने लायक़ नहीं है। लेकिन यह ठिठकने का स्वभाव इस बीच में नष्ट हुआ। इसका कारण यह है समाज के मुखर हिस्से की पढ़ाई भी उसी विचार से हुई है। विशेषज्ञता पाने के लिए भी वह वहीं जाता है। सामाजिक विज्ञान ही नहीं, वन विज्ञान हो, भाषा विज्ञान हो, साहित्य हो कोई भी चीज हो, उसकी विशेषज्ञता हासिल करने का मतलब आप अपने गुरुत्वाकर्षण वाले केंद्र पर गए कि नहीं। यह केंद्र यूरोप और अमेरिका है। बस्तर के जंगल पर भी विशेषज्ञता प्राप्त करनी है तो बस्तर जाने के बदले लंदन जाना ज़्यादा योग्य माना जाता है! इसलिए विचार

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