सभी सदस्य मिल-जुलकर पाल-पोसकर बड़ा करते हैं और मज़बूत बनाते हैं। अपने ऊपर खुद लगाया हुआ यह अनुशासन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सौंपा जाता है। एक पीढ़ी अपनी उम्र पूरी करे, उससे पहले वैसी ही परिपक्व पीढ़ी फिर सामने आ जाती है, इस धरोहर की रखवाली करने-तब समाज का जीवन बिना रुके, अबाध गति से चलता रहता है।
पिछले दो सौ वर्षों की उथल-पुथल ने समाज को चलाने वाले इन नियमों को, अनुशासन को काफ़ी हद तक तोड़ा था। समाज को जो चीजें टिकाती थीं, संचालित करती थीं, उनकी प्रतिष्ठा को इस दौर ने नष्ट किया। पुरानी व्यवस्थाएं टूटीं, लेकिन इनके बदले कोई नई कारगर व्यवस्थाएं उनकी जगह नहीं ले पाईं। लापोड़िया कोई अनोखा गांव नहीं था। इसीलिए वह भी इस उथल-पुथल के दौर में, इस आंधी के सामने अपने पैर जमाकर खड़ा नहीं रह सका था। अन्य दूसरे गांव की तरह वह भी साधनों की ग़रीबी, लाचारी के आगे माथा झुका चुका था।
लेकिन आज लापोड़िया का माथा फिर ऊंचा हुआ है। अपनी जड़ों को पहचानने, उनको तलाशने की यह यात्रा बहुत लंबी रही है। लेकिन प्रकृति में कोई भी काम बिना धीरज के फल नहीं देता है। बहुत पहले लापोड़िया गांव टूट चुका था, उसके खेत उजड़ गए थे, उसका गोचर सूख गया था। गोचर पर यहां-वहां कब्जे हो चले थे और उसके दो पुराने तालाब भी पाल टूटने के कारण नष्ट हो गए थे। लापोड़िया के लोगों ने इस बुरे दौर में गांव से 80 किलोमीटर दूर जयपुर जैसे शहर में धीरे-धीरे पलायन कर अपने को बचाने का प्रयत्न किया था। कभी जो परिवार इस पूरे गांव की व्यवस्था संभालता था, इस बुरे समय में उसके सबसे अच्छे सदस्य भी लापोड़िया छोड़कर कहीं और नौकरी करने चले गए थे। इन्हीं
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