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गोचर का प्रसाद बांटता लापोड़िया

सन् 2004: जयपुर ज़िले के एक छोटे से गांव लापोड़िया के लिए इस तारीख, इस सन् का मतलब है 4 और 2 यानी 6 साल का अकाल। आसपास के बहुत सारे गांव इस लंबे अकाल में टूट चुके हैं, लेकिन लापोड़िया आज भी अपना सिर, माथा उठाए मज़बूती से खड़ा हुआ है। लापोड़िया का माथा घमंड के बदले विनम्र दिखता है। उसने 6 साल के अकाल से लड़ने के बदले उसके साथ जीने का तरीक़ा खोजने का प्रयत्न किया है। इस लंबी यात्रा ने लापोड़िया गांव को लापोड़िया की ज़मीन में छिपी जड़ों तक पहुंचाया है। इन जड़ों ने ऊपर के अकाल को भूलकर ज़मीन के भीतर छिपे पानी को पहचानने का मेहनती काम किया है और इस मेहनत ने आज 6 साल के अकाल के बाद भी लापोड़िया को अपने पसीने से सींच कर हरा-भरा बनाया है।

कोई भी समाज शून्य में जीवित नहीं रह सकता। उसे अपने लोगों, अपने पशुओं, अपनी ज़मीन, अपने पेड़ पौधों, अपने कुएं, अपने तालाबों, अपने खेतों के लिए कोई-न-कोई ऐसी व्यवस्था बनानी पड़ती है, जो समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध हो। काल के किसी खंड विशेष में समाज के सभी सदस्यों के साथ मिल-जुलकर जो व्यवस्था बनती है, उसे फिर