देश के बहुत बड़े हिस्से में पशुपालक, ख़ासकर भेड़ पालक अपने बड़े-बड़े झुंडों को लेकर अलग मौसम में अलग-अलग रास्तों से घूमते रहते हैं। भेड़ों के इन बड़े रेवड़ों की आवक-जावक का पूरा नक्शा फ़सलों की कटाई के कैलेंडर से जोड़कर रखा गया था। सैकड़ों, हज़ारों भेड़ों के झुंड एक जगह का चारा समाप्त होने पर इस तरह दूसरे क्षेत्रों में पहुंचते थे और उन ख़ाली खेतों में बैठकर उन्हें अपने मल-मूत्र से सुंदर खाद देते थे।
किसान और भेड़ पालक के बीच का यह संतुलित रिश्ता अब नई फ़सलों और नए कैलेंडर के कारण टूट चूका है और उसी अनुपात में इन दोनों समुदायों के बीच भयंकर तनाव भी देखने में आ रहा है। मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमा पर हर वर्ष इनमें संघर्ष भी होने लगा है। अब यह दुखद परिस्थिति धीरे-धीरे राजस्थान के क्षेत्रों में भी आने लगी है।
लापोड़िया का गोचर संरक्षण आंदोलन और अब उसका दूसरे गांवों में विस्तार हमें यह भी बताता है कि बाहरी शत्रु से लड़ना अपेक्षाकृत कम कठिन काम है। लेकिन जब लड़ाई अपनों से, अपने ही गांव के लोगों से हो, अपने रिश्तेदारों से हो तो कुछ दूसरी ही तरह की परीक्षा सामने होती है। इसमें संघर्ष के स्वरूप, विरोध के नारे, धरना, जुलूस से ऊपर उठना पड़ता है। अपने को सुधारते हुए गांव को सुधारना होता है। सबको मालिक बनाते हुए उनमें सेवक की भावना भी आ सके-यदि ऐसा करना हो तो संघर्ष करने वालों को भी सेवक की भूमिका में आना होता है।
आज लापोड़िया में अनेक किसान गांव के उठे हुए जलस्तर के कारण एक बीघा-दो-बीघा में हरा चारा ले रहे हैं। यह कोई छोटी अवधि की फ़सल नहीं है। वर्ष भर, बारह मास यानी तीन सौ पैंसठ दिन लगभग एक मन चारा रोज़ निकालना अपने आप में एक बड़ी उपलब्धि है। वह भी उस गांव में जहां अकाल का छठा साल बैठा हो। किसान पशु पालन में
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