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तैरने वाला समाज डूब रहा है

पर हम कह सकते हैं कि नेपाल बाढ़ का पहला हिस्सा है। वहां हिमालय की चोटियों पर जो पानी गिरता है, उसे रोकने की उसके पास कोई क्षमता और साधन नहीं हैं। और शायद उसे रोकने की कोई व्यावहारिक ज़रूरत भी नहीं है। रोकने से ख़तरे और भी बढ़ सकते हैं। इसलिए नेपाल पर दोष थोपना बंद करना होगा।

यदि नेपाल पानी रोकेगा तो आज नहीं तो कल हमें अभी की बाढ़ से भी भयंकर बाढ़ को झेलने की तैयारी करके रखनी पड़ेगी। हम सब जानते हैं कि हिमालय का यह हिस्सा कच्चा है और इसमें कितनी भी सावधानी और ईमानदारी से बनाए गए बांध किसी-न-किसी तरह से प्रकृति की किसी छोटी-सी हलचल से टूट भी सकते हैं। और तब आज से कई गुना भयंकर बाढ़ हमारे सामने आ सकती है। यदि नेपाल को ही दोषी ठहराया जाए तो कम-से-कम बिहार के बाढ़ नियंत्रण का एक बड़ा भाग-पैसों का, इंजीनियरों का, नेताओं का अप्रैल और मई में नेपाल जाना चाहिए ताकि वहां यहां की बाढ़ से निपटने के लिए पुख़्ता इंतज़ामों के बारे में बातचीत की जा सके। बातचीत मित्रवत हो, तकनीकी तौर पर हो और ज़रूरत पड़े तो फिर मई में ही प्रधानमंत्री नहीं तो प्रदेश के मुख्यमंत्री ही नेपाल जाएं और आगामी जुलाई में आने वाली बाढ़ के बारे में चर्चा करके देखें।

हमें भूलना नहीं चाहिए कि हम बाढ़ के रास्ते में हैं। उत्तर बिहार से पहले नेपाल में भी काफ़ी लोगों को बाढ़ के कारण जान से हाथ धोना पड़ा है। पिछले साल नेपाल में भयंकर भूस्खलन हुए थे, और तब हमें पता चल जाना चाहिए था कि अगले साल हम पर भी बड़ा संकट आएगा, क्योंकि हिमालय के इस कच्चे भाग में जितने भूस्खलन हुए, उन सबका मलबा वहीं-का-वहीं पड़ा था और वह इस वर्ष की बरसात में नीचे उतर आने वाला था।

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