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पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/७२

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तैरने वाला समाज डूब रहा है


नदियों से मिलता है। वहां तीन बड़ी नदियां-गंगा, मेघना और ब्रह्मपुत्र हैं। ये तीनों नदियां नब्बे फ़ीसदी पानी उस देश में लेकर आती हैं और कुल दस फ़ीसदी वर्षा से मिलता है। बांग्लादेश का समाज सदियों से इन नदियों के किनारे, इनके संगम के किनारे रहना जानता था। वहां नदी अनेक मीलों फैल जाती है। हमारी जैसी नदियां नहीं होती कि एक तट से दसरा तट दिखाई दे। वहां की नदियां क्षितिज तक चली जाती हैं। उन नदियों के किनारे भी वह न सिर्फ बाढ़ से खेलना जानता था, बल्कि उसे अपने लिए उपकारी भी बनाना जानता था। इसी में से अपनी अच्छी फ़सल निकालता था, आगे का जीवन चलाता था और इसीलिए सोनार बांग्ला कहलाता था।

लेकिन धीरे-धीरे चार कोसी झाड़ी गई। हृद और चौर चले गए। कम हिस्से में अच्छी खेती करते थे, उसको लालच में थोड़े बड़े हिस्से में फैला कर देखने की कोशिश की। और हम अब बाढ़ में डूब जाते हैं। बस्तियां कहां बनेंगी, कहां नहीं बनेंगी इसके लिए बहुत अनुशासन होता था। चौर के क्षेत्र में केवल खेती होगी, बस्ती नहीं बसेगी-ऐसे नियम टूट चुके हैं तो फिर बाढ़ भी नियम तोड़ने लगी है। उसे भी धीरे-धीरे भूल कर चाहे आबादी का दबाव कहिए या अन्य अनियंत्रित विकास के कारण-अब हम नदियों के बाढ़ के रास्ते में सामान रखने लगे हैं, अपने घर बनाने लगे हैं। इसलिए नदियों का दोष नहीं है। अगर हमारी पहली मंज़िल तक पानी भरता है तो इसका एक बड़ा कारण उसके रास्ते में विकास करना है।

एक और बहुत बड़ी चीज़ पिछले दो-एक सौ साल में हुई है। वे हैं-तटबंध और बांध। छोटे से लेकर बड़े बांध इस इलाके में बनाए गए हैं बगैर इन नदियों का स्वभाव समझे। नदियों की धारा इधर से उधर न भटके-यह मान कर हमने एक नए भटकाव के विकास की योजना अपनाई है। उसको तटबंध कहते हैं। ये बांग्लादेश में भी बने हैं और इनकी

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