पृष्ठ:साफ़ माथे का समाज.pdf/८०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
नर्मदा घाटी: सचमुच कुछ घटिया विचार


स्पष्ट मत व्यक्त किए गए थे, लेकिन पर्यावरण का जो नया आयाम पिछले वर्षों में सामने आया है वह इस बात की मांग करता है कि इन ऊंचे बांधों की फिर से समीक्षा हो।

पर क्या पर्यावरण का मुद्दा सचमुच कोई नया आयाम है? जिस सर्वगुण संपन्न पंचाट में पानी, नदी, मिट्टी, सिंचाई, फ़सलें, बिजली, भूगर्भ, भूकंप, भूजल के सैकड़ों विशेषज्ञ थे, दोनों राज्यों की जनता के प्रतिनिधि नेता थे, योजना वाले जानकार थे, जिसके सामने तब तक देश की दूसरी नदियों पर बन चुके बांधों के गुणों अवगुणों का पूरा लेखा-जोखा था-उसे इस पर्यावरण नाम की चिड़िया का अता-पता न होना बड़ी अटपटी बात है।

खै़र, कोई बात नहीं। पिछले वर्षों में कई तरह की बदनाम योजनाओं का ब्याज ढो रहे विश्व बैंक ने अपना पल्ला बचाने के लिए ऐसी तमाम योजनाओं को पैसा देने में पहले पर्यावरण की सुरक्षा का डिठोना लगाना ज़रूरी समझा। पैसा पाने के लिए आतुर सरकारों को भी मज़बूरी में यह करना पड़ा। नर्मदा के बड़े बांधों को लेकर इसलिए राज्य सरकारों ने नवंबर 84 में 'पर्यावरण जांच समिति' बनाई। पहली बैठक थी दिसंबर 84 की तीन तारीख्न को। पर्यावरण का सबक सीखने के लिए इससे भयानक कोई और दिन न उगे। भोपाल उसी रात विकास की भारी कीमत अदा कर चुका था। यनियन कार्बाइड भी नर्मदा के बांधों की तरह गरीब और पिछड़े माने गए प्रदेश के लिए आधुनिक खेती का महान विचार लेकर आया था। ऐसे विचारों के बीच 'घटिया' विचारों की जगह भोपाल में भी नहीं बन पाई थी। नर्मदा घाटी तो फिर भी वहां से काफ़ी दूर थी।

नर्मदा घाटी को आधुनिक ढंग से विकसित करने के उच्च विचारों के बीच कुछ 'घटिया' विचार सन् 83 में उभरने लगे थे। दिल्ली की संस्था कल्पवृक्ष के दस छात्रों ने जुलाई-अगस्त में पूरी घाटी का दौरा किया और

61