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भूकंप की तर्जनी और कुम्हड़बतिया


जान लिया गया है कि एक से अधिक मंज़िल के अनगढ़ पत्थर के मकानों की पूरी तरह से ध्वस्त होने की संभावना एक मंज़िल के मकानों से कहीं अधिक रहती है। नई संरचना में इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है।'

यह तो इस रिपोर्ट की पहली झलक है। ऐसी हिंदी के लिए हम पाठकों से और इस तरह की हिंदी में कही गई बातों के लिए हम उत्तराखंड के गांवों में, घरों में रहने वाले लोगों से माफ़ी मांगते हैं। रिपोर्ट बनाने वाले बहुत ही ऊंचे दर्जे के विशेषज्ञ होंगे, और निश्चित ही इसे तैयार करते समय उनके मन में पहाड़ के निवासियों के कल्याण की भावना भी रही होगी। पर बहुत विनम्रता से कहें तो भूकंप से विनाश का ऐसा कारण ढूंढ़ना लोगों का अपमान है। ऐसी बातों का अर्थ यही है कि भूकंप तो बड़ा मामूली-सा था, उसका कोई दोष नहीं। दोष तो है अनघड़ पत्थरों से बने मकानों का, या ऐसे मकान बनाने वालों का। हमारे मकान मकान न हुए कुम्हड़बतिया हो गए जो ज़रा-सी तर्जनी देख गिर पड़े।

सौभाग्य से सिर्फ़ उत्तराखंड ही नहीं, हमारा सारा देश अनगढ़, पत्थर, मिट्टी और गारे का बना है। और अपनी इस विशिष्ट बनक के कारण ही इसने भूकंप से भी बड़े-बड़े दूसरी तरह के झटके सहे हैं। लेकिन देश की बात बाद में, पहले उत्तराखंड को ही लें। इस भूकंप के बाद से सभी जगह एक नया शब्द चल निकला है: 'भूकंप सह' यानी भूकंप सहने योग्य। शब्द तो अंग्रेज़ी से ही आया है, लेकिन इसके पीछे विचार भी अंग्रेज़ों का ही है। 19 अक्तूबर के बाद कई लोगों ने, संस्थाओं ने विशेषज्ञों ने भूकंप सह मकानों की खूब बात की है। दुर्भाग्य से स्वयं उत्तराखंड से भी ऐसी मांग आई है कि हमें ऐसी तकनीक दीजिए जो भूकंप सह हो।

यह शब्द और विचार दो बातें मान कर चलता है। (एक) उत्तराखंड

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