पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/११

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दलों में अकाली दल, केरल व तमिलनाडु की मुस्लिम लीग को और केरल के ईसाई राजनीतिक समूहों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है । और फासिस्ट साम्प्रदायिकता, दूसरे धर्म व सम्प्रदायों के प्रति झूठ, घृणा हिंसा पर आधारित होती है। इस किस्म की साम्प्रदायिकता दूसरे धर्म या सम्प्रदाय के अनुयायियों के प्रति घृणा पैदा करती है, उसके बारे में तरह-तरह के झूठ-मिथक गढ़ती है व इनको जोर-शोर से प्रचारित करती है तथा हिंसा का सहारा लेती है। फासिस्ट साम्प्रदायिक बड़े आक्रामक तेवर के साथ इस बात को लोगों की चेतना का हिस्सा बनाने की कोशिश करते हैं कि एक समुदाय को खत्म करने में ही दूसरे समुदाय का हित है, दोनों समुदायों के हित परस्पर विरोधी हैं इसलिए वे साथ-साथ नहीं रह सकते । स्वतन्त्रता-संघर्ष के दौरान 1937 के बाद इस किस्म की साम्प्रदायिकता ने जोर पकड़ा। मुस्लिम लीग व जिन्ना ने तथा हिन्दू महासभा व वीर सावरकर दोनों ने कहा कि हिन्दू और मुस्लिम दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, दोनों एक राष्ट्र में नहीं रह सकते । हिन्दू साम्प्रदायिकों ने इस बात का खूब प्रचार किया कि हिन्दू राष्ट्र में अल्पसंख्यक दास, गुलाम और दूसरे दर्जे के नागरिक बनकर रहें तो जिन्ना ने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग रखी जो दुर्भायवश पाकिस्तान के रूप में पूरी हुई। घृणा, अलगाव, निंदा और हिंसा पर टिकी साम्प्रदायिकता को आजादी के बाद आर. एस. एस. व इसके अनुसांगिक संगठनों ने अपनाया, जिसने मुसलमानों के बारे में झूठ, घृणा का इतना आक्रामक दुष्प्रचार किया कि उनको सभी समस्याओं का दोषी ठहरा दिया। इसी तरह सिक्खों में भिंडरावाला ने और मुसलमानों में जमात-ए-इस्लामी आदि ने इस किस्म की साम्प्रदायिकता को बढ़ावा दिया । साम्प्रदायिकता ने हमेशा उच्च वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक हितों की रक्षा करने में तत्परता दर्शाई है। जब से साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ तभी से ऐसा हो रहा है बल्कि यह कहा जा सकता है कि उच्च वर्ग के स्वार्थों की टकराहट के नतीजे के तौर पर साम्प्रदायिकता का जन्म हुआ है। बिल्कुल प्रारम्भ से इसका उच्च-वर्गीय चरित्र रहा है। साम्प्रदायिकता की उत्पत्ति पर विचार करना इसके वर्गीय चरित्र की पहचान करने में जरूरी है। अंग्रेजों के आने से पहले की सामन्ती शासन-प्रणाली में शासकों का चुनाव नहीं होता था बल्कि तलवार की ताकत के आधार सत्ता हथियाई जाती थी और जो भी सत्ता पर काबिज होता था वह सभी सम्प्रदायों से वफादारी व सहयोग की अपेक्षा करता था। सरकारी नौकरियां भी उन्हीं को मिलती थी जो राजा के प्रति वफादार होते थे, चाहे कोई किसी भी धर्म से ताल्लुक क्यों न रखता हो । राजा के प्रति वफादारी ही शासन व्यवस्था में पद पाने का साधन थी । अर्थव्यवस्था में 12 / साम्प्रदायिकता