पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/१३

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गया तो सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने के लिए उच्चवर्ग भी साम्प्रदायिकता के माध्यम से तेज होता गया । स्वतन्त्रता की संभावना जितनी बढ़ी सत्ता में हिस्सेदारी की स्पर्धा भी सघन हुई जिससे हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष तेज होता गया। साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को एक अन्य ऐतिहासिक संदर्भ से भी समझा जा सकता है। अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष को लेकर मुसलमानों का निम्न वर्ग-निम्न मध्यवर्ग और उच्चवर्ग व उच्च मध्यवर्ग परस्पर विरोधी विचार रखते थे। उच्चवर्ग के विचारों का प्रतिनिधित्व करने वाले सर सैयद अहमद खान ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने का विरोध किया जबकि अधिकतर उलेमाओं ने अंग्रेजों का विरोध किया और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का साथ दिया । शाह वली उल्लाही स्कूल के उलेमाओं ने कांग्रेस से गठबन्धन किया, देवबन्द के दारूल उलम के मौलाना रशीद अहमद गंगोही ने मुसलमानों को कांग्रेस से सम्बन्ध स्थापित करने का फतवा जारी किया । बहावियों ने सौ फतवों का संग्रह 'नुसरत-अल-अहरार' (स्वतन्त्रता सेनानियों की मदद ) नामक पुस्तक प्रकाशित करके अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने का संकल्प दोहराया। अंग्रेजों के विरोध या समर्थन के पीछे वर्गीय चरित्र ही काम कर रहा था। अधिकतर उलेमा या तो गांव के गरीब थे या फिर कारीगर वर्ग से सम्बन्धित थे । गौर करने की बात है कि अंग्रेजों की नीतियों ने किसानों को और हस्तशिल्पियों- कारीगरों के आर्थिक आधार को तबाह कर दिया था । मशीन से बने ब्रिटेन के कपड़ों ने भारत के जुलाहों का धंधा बिल्कुल चौपट कर दिया था। इन वर्गों पर अंग्रेजी नीतियों की सबसे अधिक मार पड़ी थी इसीलिए ये वर्ग अंग्रेजी शासन के विरुद्ध पूरी निष्ठा से लड़े। दूसरी तरफ मुस्लिम लीग में या तो उच्च मध्यवर्ग के शिक्षित लोग थे या फिर राजे- रजवाड़े और जमींदार । शिक्षित मध्यवर्ग नौकरी पाने के लिए तथा राजे- रजवाड़ों ने राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेजों का साथ दिया। धर्म की आड़ लेकर लोगों को एकत्रित करने की कोशिश की चूंकि मुस्लिम लीग का न तो धर्म से कोई लेना देना था और न ही आम लोगों की तकलीफों से, इसलिए मुस्लिम लीग की पकड़ कभी भी आम मुसलमानों में नहीं हुई और कभी भी उल्लेखनीय सफलता नहीं मिली। विशेषकर बंगाल और पंजाब जैसे राज्यों में जहां मुसलमानों की संख्या अन्य समुदायों से अधिक थी। महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द ने 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' लेख में साम्प्रदायिकता के वर्गीय चरित्र को उद्घाटित किया है कि 'इन संस्थाओं (साम्प्रदायिकता) को जनता के सुख-दुख से कोई मतलब नहीं, उनके पास ऐसा कोई सामाजिक या राजनैतिक कार्यक्रम नहीं है, जिसे राष्ट्र 14 / साम्प्रदायिकता