पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/१९

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का इल्म और फन, और इस्लाम की तहजीब मेरी पूंजी है और मेरा फर्ज है कि उसकी रक्षा करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं अपने मजहबी और कलचरल दायरे में अपना एक खास अस्तित्व रखता हूं और मैं बरदाश्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई हस्तक्षेप करे। किंतु इन तमाम भावनाओं के अलावा मेरे अंदर एक और भावना भी है, जिसे मेरी जिंदगी की 'रिएलिटीज' यानी हकीकतों ने पैदा किया है । इस्लाम की आत्मा मुझे उससे नहीं रोकती, बल्कि मेरा मार्ग-प्रदर्शन करती हैं। मैं अभिमान के साथ अनुभव करता हूं कि ‘मैं हिंदुस्तानी हूं। मैं हिंदुस्तान की अभिन्न संयुक्त राष्ट्रीयता नाकाबिले तक्सीम मुत्ताहिदा कौमियत का एक अंश हूं। मैं इस संयुक्त राष्ट्रीयता का एक ऐसा महत्त्वपूर्ण अंश हूं, उसका एक ऐसा टुकड़ा हूं जिसके बिना उसका महत्त्व अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक जरूरी हिस्सा हूं। मैं अपने इस दावे से कभी दस्तबरदार नहीं हो सकता।" दूसरी ओर इसके विपरीत मुहम्मद अली जिन्ना थे, जिनका नमाज और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं था । जिनका इस्लाम में इस्लाम की मान्यताओं में कोई विश्वास नहीं था। मसलन शराब और सुअर का मांस इस्लाम में हराम माने गए हैं जबकि जिन्ना का नाश्ता सुअर के मांस और रात का भोजन शराब (स्काच) के बिना नहीं होता था । आचार-1 र - विचार से, वेश-भूषा से, विश्वास - व्यवहार से कहीं से भी जिन्ना इस्लाम धर्म के निकट नहीं थे, लेकिन उन्होंने धर्म के आधार पर अलग राष्ट्र की मांग की और फलस्वरूप पाकिस्तान का निर्माण हुआ। महात्मा गांधी व मौलाना अबुल कलाम आजाद सच्चे अर्थों में धार्मिक थे लेकिन इसके विपरीत जिन्ना या सावरकर का धर्म से व धार्मिकता से कोई वास्ता नहीं था । जिन्ना की मुस्लिम लीग और मौलाना अबुल कलाम आजाद में हमेशा छत्तीस का आंकड़ा रहा और महात्मा गांधी तो वीर सावरकर के राजनीतिक शिष्य की ही गोली का शिकार हुए। इसके विपरीत जिन्ना और सावरकर में गहरी समानताएं हैं जैसे दोस्तों में होती हैं। दोनों की विचारधारा धर्म के मामले में एक जैसी थी, दोनों धर्म के आधार पर राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे। दोनों 'द्वि-राष्ट्र' के सिद्धांत के समर्थक थे । यद्यपि यह बात सही है कि साम्प्रदायिकता का मूल कारण धर्म नहीं है लेकिन साथ ही यह बात भी सच है कि धर्म का प्रयोग करके ही साम्प्रदायिक शक्तियां फलती-फूलती हैं। आधुनिक भारत के चिन्तक व समाज सुधारक राजाराम मोहन राय ने धर्म के नाम पर किए जाने वाले कुकृत्यों को उचित ठहराने के बारे में सही ही कहा है कि 'इन धार्मिक नेताओं ने अधिकतर लोगों को अपने आकर्षण में इस तरह जकड़ लिया है कि ये असहाय लोग वस्तुतः बाध्यता और दासता के बंधन में हैं, यह अपनी दृष्टि और अपना हृदय 20 / साम्प्रदायिकता