आगे रखकर कहते हैं कि एक संस्कृति दूसरी संस्कृति से टकराती है। दो धर्मों के व दो संस्कृतियों के लोग मिल-जुलकर नहीं रह सकते। एक को दूसरे से खतरा है। अत: संस्कृति की रक्षा के लिए हमारे (साम्प्रदायिकों के) पीछे लग जाओ। इसी आधार पर साम्प्रदायिक लोग जनता को इस बात का झांसा देकर रखते हैं कि वे संस्कृति की रक्षा कर रहे हैं जबकि वे सांस्कृतिक मूल्यों यानी मिल-जुलकर रहने, एक दूसरे का सहयोग करने, एक दूसरे का आदर करने की मानवीय सांस्कृतिक परम्पराओं को नष्ट कर रहे होते हैं। यह बात बिल्कुल बेबुनियाद व खोखली है कि समान धर्म को मानने वालों की संस्कृति भी समान होती है। भारत के ईसाई व इंग्लैंड के ईसाई का, भारत के मुसलमान व अरब देशों के मुसलमानों का, भारत के हिन्दू व नेपाल के हिन्दुओं का, पंजाब के हिन्दू और तमिलनाडु के हिन्दू का, असम के हिन्दू व कश्मीर के हिन्दू का धर्म तो एक ही है लेकिन उनकी संस्कृति बिल्कुल अलग-अलग है। न उनके खान-पान एक जैसे हैं, न रहन-सहन, न भाषा- बोली में समानता है न रूचि - स्वभाव में । इसके विपरीत अलग-अलग धर्मों को मानने वालों की संस्कृति एक जैसी होती है। काश्मीर के हिन्दू व मुसलमानों का धर्म अलग-अलग होते हुए भी उनकी बोली, खान-पान, रूचि-स्वभाव में समानता है। तमिलनाडू के हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति लगभग एक जैसी है। धर्म के आधार पर संस्कृति की पहचान अवैज्ञानिक तो है ही, साम्प्रदायिकरण की कोशिश भी है । साम्प्रदायिक शक्तियां संस्कृति के नाम पर पिछड़ी व अवैज्ञानिक सोच को महिमा-मंडित करती हैं। उदाहरण के तौर पर लें तो अफगानिस्तान के तालिबानों ने संस्कृति के नाम पर पिछड़ी सोच को ही बढावा दिया। भारत में भी साम्प्रदायिक संगठन वर्ण-व्यवस्था, पितृसत्ता, सती प्रथा, अंधविश्वास आदि को बढावा देते हैं। अपनी परम्परा के प्रति भी आलोचनात्मक रवैया नहीं अपनाते, बल्कि परम्परा से भी उन बातों को बढ़ावा देते हैं, जिससे कि आलोचनात्मक व वैज्ञानिक विवेक पैदा नहीं होता। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने इसकी ओर संकेत किया है 'हाल की हिन्दू राजनीति का उल्लेखनीय पक्ष सिर्फ यह नहीं है कि इसमें अयोध्या की मस्जिद के बारे में, भारतीय मुसलमानों के उदय के बारे में, खुद हिंदू धर्म की सहिष्णुता के बारे में, लोगों के अज्ञान का तिकड़मी ढंग से इस्तेमाल किया गया है, बल्कि इसका उल्लेखनीय पक्ष यह भी है कि खुद हिंदू नेताओं द्वारा भारतीय सभ्यता की कहीं बड़ी उपलब्धियों को, यहां तक कि स्पष्ट रूप से हिन्दू योगदानों को भी अनदेखा कर, कई संदिग्ध किस्म की विशेषताओं को ग्रहण किया गया है। उनके लिए न उपनिषदों या गीता की बौद्धिक ऊंचाइयों का कोई अर्थ है, न संस्कृति और साम्प्रदायिकता / 29