पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/२९

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ब्रह्मगुप्त या शंकर की या फिर कालिदास या शूद्रक की बारिकियों का । इनके मुकाबले उनके लिए राम की मूर्ति और हनुमान की छवि के सामने माथा टिकाना ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। उनका राष्ट्रवाद, भारत की तर्कवादी परंपराओं को भी अनदेखा करता है, जबकि यह वह देश है, जिसने बीज गणित, ज्यामिति तथा खगोलशास्त्र के क्षेत्र में कुछ सबसे पहले कदम उठाए थे, जहां दशमलव प्रणाली विकसित हुई, जहां आंरभिक दर्शन, चाहे धार्मिक हो या गैर धार्मिक, असाधारण ऊंचाइयों पर पहुंचा, जहां लोगों ने शतरंज जैसे खेलों का आविष्कार किया, जहां सबसे पहले यौन शिक्षा शुरू हुई और जहां राजनीतिक अर्थव्यवस्था का व्यवस्थित अध्ययन हुआ। लेकिन, हिंदू लड़ाके इन सबके बजाए प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत को निःशंक मूर्तिपूजकों, धर्मोन्मादियों, युद्धोन्मत भक्तों और धार्मिक हत्यारों के ही देश के रूप में प्रस्तुत करते हैं । " भाषा संस्कृति का महत्वपूर्ण पक्ष है। भाषा की उत्पत्ति के साथ ही मानवजाति का सांस्कृतिक विकास हुआ है। भाषा के माध्यम से ही सामाजिक- व्यक्तिगत जीवन के कार्य चलते हैं। भाषा में ही मनोरंजन करते हैं, हंसते-रोते हैं, सुख-दुख की अभिव्यक्ति करते हैं। समान भाषा-बोली में व्यवहार करने वाले लोगों की रूचियों - स्वभाव की भाव-भूमि एक ही होती है। लेकिन साम्प्रदायिकता की विचारधारा और इसमें विश्वास करने वाले लोग भाषा को धर्म के आधार पर पहचान देकर उसका साम्प्रदायिकरण करने की कुचेष्टा करते रहते हैं। जैसे हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा मानना, पंजाबी को सिखों की और उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानना । साम्प्रदायिक लोगों के लिए भाषा भी दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफरत फैलाने का औजार है, इनका भाषा-प्रेम दूसरी भाषा को कोसने-दुत्कारने में नजर आता है। अपनी भाषा के विकास के लिए कुछ न करके दूसरी भाषा को गालियां देना तो बहुत ही आसान मगर ओछे किस्म का ‘भाषा-प्रेम' है । हिन्दी - उर्दू को लेकर यह विवाद काफी गहरा है। उर्दू को मुसलमानों की भाषा मानकर ही शायद इसे पाकिस्तान की राज्य-भाषा घोषित किया गया, जबकि पाकिस्तान में उर्दू बोलने वालों की संख्या बहुत कम है। यदि देखा जाए तो हिन्दी और उर्दू तो जुड़वां बहनों की तरह हैं जो एक ही क्षेत्र से, एक ही मानस से पैदा हुई हैं। अमीर खुसरो को कौन सी भाषा का कवि कहा जाए । यदि हिन्दी कथाकार मुंशी प्रेमचंद या अन्य किसी साहित्यकार की रचनाओं से उर्दू के शब्दों को निकाल दिया जाए तो वह कैसी रचनांए बचेंगी, इसका अनुमान लगाया जा सकता है । साधारण हिन्दी और उर्दू दोनों जन-सामान्य की भाषाएं हैं। इनका मिला-जुला रूप ही जन-साधारण की भाषा है। भाषा के नाम पर किए जाने वाले साम्प्रदायीकरण से समझा जा सकता है कि भाषा का विवाद खड़ा किया जाता है— उर्दू व हिन्दी का, 30 / साम्प्रदायिकता