पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/३०

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लेकिन समाप्त की जाती है जन साधारण की भाषा । उदाहरण के लिए आम तौर पर सार्वजनिक स्थानों पर 'पीने का पानी', 'ठण्डा पानी' लिखा होता था अब उनकी जगह लिखा है 'पेयजल', 'शीतल जल'। लोग हमेशा पानी मांगते हैं लेकिन लिखा जाता है संस्कृतनिष्ठ 'जल' । बस में लिखा होता था 'बीड़ी सिग्रेट पीना मना है', अब लिखा है 'धूम्रपान निषेध / वर्जित है, 'अन्दर आना मना है' की जगह 'प्रवेश निषेध', 'दाखिला की जगह 'प्रवेश' आदि सैकड़ों प्रयोग हैं जिन पर अनजाने ही साम्प्रदायिक मुहिम का प्रभाव पड़ा है। भाषा के इस प्रयोग से साफ समझा जा सकता है कि वर्ग-विभक्त समाज में संस्कृति का रूप भी वर्ग - विभक्त होता है । यद्यपि वह इतनी साफ तौर पर अलग-अलग दिखाई नहीं देता। आम बोल-चाल की हिन्दी या उर्दू मिश्रित हिन्दी के स्थान पर संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का प्रयोग संस्कृति के वर्गीय रूप की ओर संकेत करता है। खेती करने वाले किसान-मजदूर की तथा बिना मेहनत किए ऐश करने वाले जमींदार व सेठ की रूचियों में निश्चित रूप से भिन्नता होती है। साम्प्रदायिकता हमेशा शासकों की संस्कृति यानी शोषण की संस्कृति की हिमायती होती है। साम्प्रदायिकता की विचारधारा और इसको माननेवाले गैर-बराबरी को उचित ठहराते हैं। महान कथाकार मुंशी प्रेमचंद ने 'साम्प्रदायिकता और संस्कृति' लेख में इस पर गहराई से विचार किया है कि 'अब संसार में केवल एक संस्कृति है, न कहीं हिन्दू-संस्कृति, न कोई अन्य संस्कृति, मगर हम आज भी हिन्दू और मुस्लिम संस्कृति का रोना रोए चले जाते हैं। ईरानी संस्कृति है, अरब संस्कृति है, लेकिन ईसाई-संस्कृति और मुस्लिम या हिन्दू संस्कृति नाम की कोई चीज नहीं है।” मुसलमानों व हिन्दुओं के पूजा-विधान में, ईश्वर के प्रति धारणाओं में भी समानता है, भाषा, रहन-सहन, खान-पान व संगीत और चित्र कला आदि में हिन्दू-मुसलमानों में समानता है। रहन-सहन, खान-पान से धर्म का संबंध होता है। उसी के अनुरूप धर्म का स्वरूप बनता है, न कि धर्म के कारण रहन-सहन व खान-पान का । परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य की संस्कृति व उसके घटक धर्म का रूप बना है। इसलिए पूरी दुनिया में धर्म का एक सा रूप नहीं है। स्थान के अनुसार उसका रूप बदल जाता है। जैसे-जैसे परिस्थितियां बदलती हैं तो धर्म का व यहाँ तक कि ईश्वर का रूप भी बदलता है; साथ ही रिवाज, पूजा-विधान तो लगातार बदले ही हैं। एक-संस्कृति जैसी या पवित्र संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं है । संसार के एक समुदाय के लोगों ने दूसरे समुदाय के लोगों से काफी कुछ ग्रहण किया है। इस आदान-प्रदान से ही समाज का विकास हुआ है। विशेषकर भारत जैसे देश में जहां विभिन्न क्षेत्रों से लोग आकर बसे वहां तो ऐसी किसी शुद्ध- संस्कृति की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यहां शक, हूण, कुषाण, पठान, संस्कृति और साम्प्रदायिकता / 31