पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/४३

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राष्ट्रीयता धार्मिक सिद्धांतों का दायरा नहीं। राष्ट्रीयता सामाजिक बंधनों का घेरा नहीं है। राष्ट्रीयता का जन्म देश के स्वरूप से होता है। उसकी सीमाएँ देश की सीमाएं हैं। प्राकृतिक विशेषता और विभिन्नता देश को संसार से अलग और स्पष्ट करती है और उसके निवासियों को एक विशेष बंधन – किसी सादृश्य के बंधन-से बांधती है । " राष्ट्र की अवधारणा एवं राष्ट्रवाद की भावना असल में आधुनिक काल में हुई है। योरोप में सामन्ती शासन के दौरान सत्ता और चर्च का गठबन्धन इस तरह से था कि चर्च, धर्म गुरु या धर्म राजा की सत्ता को दैवीय सत्ता के रूप में स्वीकृति प्रदान करता था तो सामन्ती शासन चर्च को दान आदि देकर उसकी सर्वोच्चता को उचित ठहराता था। सामन्ती शोषण के विरुद्ध जब ओद्यौगिक क्रांति हुई तो उसमें जहां धर्म को अपनाया तो वहीं चर्च की सर्वोच्चता को भी चुनौती दी। इस तरह राष्ट्र की अवधारणा का उदय राष्ट्र पर धर्म की सर्वोच्चता को समाप्त करने के साथ ही जुड़ा है। जिस क्षेत्र में कोई विचार पैदा होता है उस क्षेत्र की जरूरतें भी उसके साथ जुड़ जाती हैं। योरोप के देशों में एक ही भाषा बोलने वाले, एक ही धर्म को मानने वाले तथा एक ही नस्ल के लोग रहते थे, इसलिए उन्होंने 'एक धर्म, एक नस्ल, एक भाषा' के मानने वालों को एक राष्ट्र की संज्ञा दी । योरोप के देशों में विभिन्न धर्मों को मानने वाले लोग प्राय: दूसरे विश्व युद्ध के बाद गए हैं, लेकिन भारत में सदियों से विभिन्न नस्लों, धर्मों, भाषाओं को बोलने वाले लोग रहते हैं, इसलिए 'एक धर्म, एक भाषा, एक नस्ल' वाली राष्ट्र की परिभाषा भारतीय परिस्थितियों के अनुकूल नहीं थी। इसलिए तत्कालीन राष्ट्रवादी नेताओं ने इस परिभाषा को खारिज कर दिया और विभिन्न धर्मों, भाषाओं व नस्लों को शामिल करने वाले राष्ट्र की परिकल्पना की। इसके विपरीत अंग्रेजों के पिछलग्गू साम्प्रदायिक व संकीर्ण लोगों ने 'एक धर्म, एक राष्ट्र, एक नस्ल' वाली परिभाषा के राष्ट्र को स्वीकार किया। वे इन आधारों पर देश के लोगों को लड़वाना चाहते थे और अपने इस मकसद में वे आंशिक तौर पर सफल भी हुए। भारत में राष्ट्रवाद की उत्पत्ति स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान साम्राज्यवाद के विरुद्ध संघर्ष करने में हुई थी। ब्रिटेन के साम्राज्यवाद ने भारत की धन- दौलत का शोषण किया और यहां के संसाधनों का अपने हित में इस्तेमाल किया। भारत की आम जनता ने तथा अन्य वर्गों ने इस बात को रेखांकित किया कि साम्राज्यवादी नीतियां उनके जीवन जीने के आधार को समाप्त कर रही हैं। लोग इसके विरुद्ध संगठित होने लगे और उन्होंने निर्णायक आन्दोलन छेड़ा। लेकिन साम्प्रदायिक शक्तियों ने हमेशा साम्राज्यवादी अंग्रेजों का साथ दिया, उनके शासन व लूट को जारी रखने में उनकी सहयोगी रहीं, और 44 / साम्प्रदायिकता