पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/४७

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वहां की सरकार जनता के हितों की कोई परवाह नहीं मानती। हिन्दू 'राष्ट्र' भी भारत के सभी लोगों की आशा-आकांक्षा का प्रतीक नहीं है, बल्कि चुनिन्दे उच्चवर्गी हिन्दुओं के लिये ही मायने रखता है। इस हिन्दू राष्ट्र में देश के दलितों, पिछड़ी जातियों-जनजातियों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं का प्रतिबिम्ब नहीं है जो कि इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं। हिन्दू राष्ट्र की इस संकल्पना में (अ) अल्पसंख्यकों के लिए न कोई विशेषाधिकार है और न कोई हक । उन्हें हिन्दू राष्ट्र में पूरी तरह मातहत बनकर रहना पड़ेगा। (ब) महिलाओं को 'आदर्श' माता, बहन या पत्नी की भूमिका निभाते हुए पति, पिता या पुत्र के अधीन रहना पड़ेगा। (स) कामगारों को मालिकों को अपने घर का मुखिया मानकर अपने सभी अधिकारों को तिलांजलि देकर उत्पादन करते रहना होगा। (द) दलितों को अपने आरक्षण को त्यागकर गुणवत्ता के मापदंड को स्वीकार करना होगा ताकि उच्चवर्गीयों के लिए नौकरियों में एकाधिकार और समाज में विशेषाधिकार का मार्ग सुलभ हो सके। धर्म-आधारित राष्ट्र की संकल्पना कितनी मिथ्या और खोखली है, इसको पाकिस्तान के संदर्भ में समझा जा सकता है। पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार पर हुआ, लेकिन जल्दी ही उसके दो टुकड़े हो गए। एक ही धर्म को मानने के बावजूद भी उनमें एकता नहीं रह सकी । इसी से स्पष्ट है कि धर्म किसी राष्ट्र के लिए केन्द्रीय तत्त्व नहीं हो सकता। धर्म को राष्ट्र के अन्य हितों से ऊपर रखना और राष्ट्रीय हितों में जन हितों को शामिल न करना सच्चा राष्ट्रवाद नहीं है। सच्चा राष्ट्रवादी वही है जो अपने राष्ट्र के लोगों की भलाई के लिए सोचता है व उसके अनुरूप कार्य करता है। संदर्भ 1. सामाजिक क्रांति के दस्तावेज; (भाग -1 ); शंभुनाथ (सं.); पृ.- 620 ; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली ; 2004 2. सामाजिक क्रांति के दस्तावेज (भाग -1 ); शंभुनाथ (सं.); पृ. 621- 622; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली; 2004 3. साम्प्रदायिकता और संस्कृति के सवाल; सहमत प्रकाशन, दिल्ली; ( अमर्त्य सेन के लेख: धर्मनिरपेक्ष भारत के लिए चुनौतियां); पृ.-53-54 4. धर्मनिरपेक्षता की दिशा; अजित मुरिकन (सं.); पृ. 50; विकास अध्ययन केन्द्र ( मलाड ), मुम्बई; 1999 48 / साम्प्रदायिकता