पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/६१

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साम्प्रदायिकता और जातिवाद साम्प्रदायिकता और जातिवाद दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, दोनों समाज में गैर बराबरी व एक समुदाय की दूसरे समुदाय पर वर्चस्व की विचारधारा को मानते हैं। साम्प्रदायिकता जातिवाद को और जातिवाद साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देता है। इनके संबंधों को जानना-समझना बहुत दिलचस्प भी है और जरूरी भी है। साम्प्रदायिक नेता, संगठन और दल भी उन्हीं पुरातन ग्रन्थों- शास्त्रें का तथा पौराणिक मिथकों का हवाला देते हैं जिसका कि जातिवाद को बढ़ावा देने वाले नेता, संगठन और दल | जाति -प्रथा हिन्दू समाज की विशेषता है जिसको मनुस्मृति नामक ग्रन्थ में व्याख्यायित - विश्लेषित किया है। मनु ने अपनी स्मृति में वर्ण- आधारित समाज की व्यवस्था दी है। जाति के वर्चस्व की विचारधारा का मूल आधार मनुस्मृति है तो हिन्दू साम्प्रदायिक संगठनों के लिए मनुस्मृति न केवल पूज्य ग्रन्थ है बल्कि इसमें प्रदत व्यवस्था को लागू करने के मकसद को वे खुलेआम स्वीकारते हैं। भारत को 'हिन्दू राष्ट्र' के रूप में बदल देने के लिए जोर लगा रहे लोगों से यदि पूछा जाए कि हिन्दू- राष्ट्र बनाकर वे क्या करेंगे तो उनके सामने होगा कि भारत के मौजूदा संविधान की जगह वे मनु-स्मृति के अनुसार समाज का निर्माण करेंगे। मनुस्मृति कुछ तथाकथित उच्च जातियों को विशेषाधिकार प्रदान करती है। उनका वर्चस्व दूसरी जातियों पर लादती है और अधिकांश लोगों को मानवीय अधिकारों व नागरिक अधिकारों से वंचित करती है। इसलिए जाति वर्चस्व को तोड़ने वाले, जाति -प्रथा को समाप्त करने वाले तथा समतामूलक समाज की स्थापना चाहने वाले चिंतकों-विचारकों, रचनाकारों ने मनुस्मृति के विधान की आलोचना की है। उसकी नैतिक व सर्वोच्च सत्ता को चुनौती दी है । जोतिबा फूले हो या भीमराव अम्बेडकर सभी समाज सुधारकों ने जाति प्रथा को मान्यता देने वाली पुस्तक मनुस्मृति को भारतीय समाज के विकास में सबसे बड़ी बाधा समझा है। अतः जातिवाद और साम्प्रदायिकता के खिलाफ अलग-अलग संघर्ष नहीं बल्कि साम्प्रदायिकता व जातिवाद के विरुद्ध एकजुट संघर्ष ही दोनों को समाप्त कर सकता है। साम्प्रदायिकता और जातिवाद एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। यह अलग-अलग समय पर अपने शिकार बनाती है और पकड़ में न आने वाली चालाकी से एक को दूसरे के खिलाफइस्तेमाल करती 62 / साम्प्रदायिकता