पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/८

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साम्प्रदायिकता साम्प्रदायिकता मात्र दो धर्मों के बीच विवाद, झगड़ों व हिंसा की घटनाओं का ही नाम नहीं है। यह दो धार्मिक समुदायों के विवादों तक सीमित नहीं बल्कि इसने एक विचारधारा का रूप धारण कर लिया है, अपनी एक तर्क-पद्धति विकसित कर ली है जिसके आधार पर यह समाज के विभिन्न पक्षों पर विचार करती है। समझ के स्तर पर साम्प्रदायिकता को एक विचारधारा के रूप में न देख पाना साम्प्रदायिकता को पूरे तौर पर न समझना है 'आखिरकार साम्प्रदायिकता सबसे पहले एक विचारधारा है, एक विश्वास प्रणाली है जिसके जरिए समाज, अर्थव्यवस्था और राजतंत्र को देखा जाता है। यह समाज और राजनीति को देखने का एक तरीका है।" साम्प्रदायिकता एक राजनीतिक दृष्टिकोण है जिसमें यह माना जाता है कि एक धार्मिक समुदाय के सभी लोगों के सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक व धार्मिक हित एक जैसे होते हैं । साम्प्रदायिकता एक कदम आगे रखकर कहती है कि अलग-अलग समुदायों के हित न केवल अलग-अलग होते हैं, बल्कि एक-दूसरे के विपरीत भी होते हैं। इस तरह साम्प्रदायिकता एक नकारात्मक सोच पर टिकी होती है। यदि इस बात को समझा जाए तो इसका अर्थ निकलेगा कि जैसे भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी आदि विभिन्न धर्मो-सम्प्रदायों के लोग रहते हैं तो साम्प्रदायिकता की विचारधारा के तर्क के अनुसार सभी हिन्दुओं के हित एक जैसे हैं, सभी मुसलमानों के एक जैसे, सभी सिक्खों के एक जैसे व सभी ईसाइयों के एक जैसे । एक समुदाय के हित न केवल एक जैसे हैं बल्कि एक दूसरे के विपरीत हैं। हिन्दुओं के हितों की मुसलमानों, सिक्खों, ईसाइयों के हितों से टकराहट है। इसी तरह मुसलमानों व अन्य धर्मावलंबियों की अन्य धर्मों / समुदायों के साथ | इस धारणा के अनुसार तो भारत में हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख, ईसाई शान्तिपूर्ण तरीके से साथ-साथ रह ही नहीं सकते और साम्प्रदायिक झगड़े तो अवश्यंभावी हैं । यह धारणा न तो तर्क के आधार पर सही है और न ही तथ्यपरक है। यह बात बिल्कुल भी सही नहीं है कि एक धर्म के मानने वाले लोगों के हित एक समान होते हैं। जब तक समाज वर्गों में बंटा है, समाज में गरीब और साम्प्रदायिकता / 9