पृष्ठ:साम्प्रदायिकता.pdf/९६

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वे मांसाहारी होते हैं इसलिए उनको हिंसा करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती। आम धारणा है कि जैसा आहार होगा वैसा ही व्यवहार व विचार होगा। कहावत है कि 'जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन।' इस धारणा में यह मान लिया जाता है कि जो शाकाहारी होगा वह स्वभावत: ही सहिष्णु व उदार होगा तथा जो मांसाहारी होगा वह स्वभावतः ही क्रूर व हिंसक होगा। यह बात न तो तथ्यपरक है और न ही तर्कपरक । इस परिभाषा को सच मान लिया जाए तो यह मानना पड़ेगा कि दुनिया में केवल दस प्रतिशत लोग ही दयालु व सहिष्णु हैं और नब्बे प्रतिशत लोग क्रूर व हिंसक हैं क्योंकि दुनिया में नब्बे प्रतिशत लोग मांसाहारी हैं और दस प्रतिशत शाकाहारी । मानव के इतिहास में एक समय ऐसा रहा है जबकि मनुष्य के पास मांस के अलावा खाने के लिए कुछ नहीं था। प्राचीन भारत में भी खूब मांस खाया जाता था और जब वैदिक समाज में इस कारण पशुओं की बहुत ज्यादा हत्या होने लगी तो जैन और बौद्ध धर्म ने इसका विरोध किया, जो कि कृषि समाज के विकास के लिए बहुत जरूरी था । समाज के विकास के साथ, स्थान व जलवायु के अनुसार मांसाहार की परिभाषा भी बदलती रही है। समुद्र के आस पास रहने वाले लोगों के पास मछली के अलावा खाने के लिए कुछ नहीं है। मछली को मांसाहार की श्रेणी में डालकर यदि खाना निषिद्ध कर दें तो उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं बचेगा। मछली को 'जल तोरी' व अण्डे को 'राम लड्डू' कहकर खाने वाले 'शाकाहारियों' की संख्या भी काफी है। यदि शाकाहार को ही दयालुता व सहिष्णुता के व्यवहार का पर्याय मान लिया जाए तो जर्मनी के क्रूर शासक हिटलर को करोड़ों की संख्या में निर्दोष लोगों की जान नहीं लेनी चाहिए थीं, क्योंकि वह तो शुद्ध शाकाहारी था । मनुष्य में हिंसक प्रवृतियों के पनपने का कारण सामाजिक सांस्कृतिक विकास है न कि आहार । क्रूरता व सहिष्णुता का सम्बन्ध व्यक्ति के दिमाग से है न कि शरीर से । आहार तो शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है, उसका दिमाग से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं है। मानव शरीर को जिन्दा रखने के लिए तथा काम करने के लिए जिस ऊर्जा की जरूरत होती है वह उसे अनाज, सब्जी, मांस, दूध, आदि से मिलती है। मनुष्य अनाज, मांस, दूध आदि का सेवन करता है उसका शरीर इनमें से मंड, प्रोटीन व वसा, विटामिन आदि के रूप में उससे ऊर्जा लेता है। फिर ये ऊर्जा चाहे उसे मांस से मिले या अनाज से या दूध से। वह मांस और अनाज-सब्जी से मिली ऊर्जा में कोई भेदभाव नहीं करता। भोजन का सारा स्वाद तो सिर्फ गले तक ही सीमित है, पाचन तंत्र के लिए साम्प्रदायिकता और मिथ्या प्रचार / 97