भयंकर प्रौद्योगिक मंदी के ज़माने में की गयी थी। इन कारखानेवालों ने आपस में समझौता किया कि वे एक-दूसरे के देश के बाजारों में प्रतियोगिता नहीं करेंगे और उन्होंने विदेशों को निम्नलिखित अनुपात से आपस में बांट लिया था : ग्रेट ब्रिटेन ६६ प्रतिशत , जर्मनी २७ प्रतिशत, बेलजियम ७ प्रतिशत । भारत पूरी तरह ग्रेट ब्रिटेन के लिए अलग छोड़ दिया गया था। इन सबने मिलकर उस एक ब्रिटिश कम्पनी के खिलाफ़ जंग छेड़ दी जो कार्टेल में शामिल नहीं हुई थी, और इस लड़ाई का खर्च कुल बिक्री में से कुछ प्रतिशत भाग काटकर निकाला जाता था। परन्तु १८८६ में जब दो ब्रिटिश कम्पनियां इससे अलग हो गयीं तो यह कार्टेल ढह गया। यह बात अत्यंत सारगर्भित है कि इसके बाद जो तेज़ी के ज़माने आये उनमें भी कोई समझौता नहीं हो पाया।
१९०४ के आरंभ में जर्मनी का स्टील सिंडीकेट बनाया गया। नवम्बर १९०४ में इंटरनेशनल रेल कार्टेल दुबारा खड़ा किया गया और बंटवारा इस अनुपात से हुआ : इंगलैंड ५३.५ प्रतिशत , जर्मनी २८.८३ प्रतिशत , बेलजियम १७.६७ प्रतिशत। बाद में फ़्रांस भी इसमें शामिल हो गया और उसे पहले, दूसरे तथा तीसरे वर्षों के दौर में १०० प्रतिशत की सीमा से बाहर , अर्थात् १०४.८ आदि के कुल योग में से , क्रमशः ४.८ प्रतिशत, ५.८ प्रतिशत तथा ६.४ प्रतिशत का हिस्सा मिला। १९०५ में यूनाइटेड स्टेट्स स्टील कार्पोरेशन इस कार्टेल में शामिल हुआ ; फिर आस्ट्रिया तथा स्पेन शामिल हुए। १९१० में फ़ोगेल्स्टीन ने लिखा , "इस समय दुनिया का बंटवारा पूरा हो चुका है, और बड़े-बड़े उपभोक्ता , मुख्यतः राज्यीय रेलें- क्योंकि दुनिया का बंटवारा उनके हितों को ध्यान में रखे बिना ही कर दिया गया है - अब कवि की तरह बृहस्पति ग्रह के स्वर्ग में रह सकती हैं।"*[१]
हम इंटरनेशनल ज़िंक सिंडीकेट का भी उल्लेख करेंगे, जिसकी
- ↑ *Vogelstein, «Organisationsformen», पृष्ठ १००
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