जब तक वर्गों का अस्तित्व है तब तक इस संघर्ष का सार-तत्व , उनकी वर्गगत विषय-वस्तु हरगिज़ नहीं बदल सकती। स्वाभाविक रूप से यह बात उदाहरण के लिए, जर्मन पूंजीपति वर्ग के हित में है- अपने सैद्धांतिक तर्कों की दृष्टि से कौत्स्की जिसकी ओर चले गये हैं (इसपर हम आगे चलकर विचार करेंगे ) - कि वर्तमान आर्थिक संघर्ष (दुनिया के बंटवारे) के सार-तत्व को छुपाया जाये और संघर्ष के कभी किसी और कभी किसी रूप पर जोर दिया जाये। कौत्स्की भी यही ग़लती करते हैं। ज़ाहिर है, हमारे ध्यान में अकेला जर्मन पूंजीपति वर्ग ही नहीं बल्कि सारे संसार का पूंजीपति वर्ग है। पूंजीपति दुनिया का बंटवारा किसी विशेष दुष्टता की भावना के कारण नहीं बल्कि इसलिए करते हैं कि संकेंद्रण जिस हद तक पहुंच चुका होता है वह उन्हें मुनाफ़ा कमाने के लिए यह रास्ता अपनाने पर मजबूर कर देता है। और वे यह बंटवारा “पूंजी के अनुपात से", "शक्ति के अनुपात से" करते हैं क्योंकि बिकाऊ माल के उत्पादन और पूंजीवाद के अंतर्गत बंटवारे का कोई दूसरा तरीक़ा हो ही नहीं सकता। परन्तु शक्ति का कम या ज्यादा होना इसपर निर्भर करता है कि आर्थिक तथा राजनीतिक विकास कहां किस हद तक हुआ है। जो कुछ हो रहा है उसे समझने के लिए यह आवश्यक है कि हम इस बात को जानें कि शक्ति में परिवर्तन होने से कौनसे प्रश्न तय होते हैं। यह प्रश्न कि ये परिवर्तन "शुद्धतः" आर्थिक होते हैं या गैर-आर्थिक (उदाहरण के लिए सैनिक) एक गौण प्रश्न है, जिससे पूंजीवाद के नवीनतम युग से संबंधित मूलभूत विचारों में ज़रा भी अंतर नहीं पड़ता। पूंजीवादी संघों के बीच संघर्ष तथा समझौतों के सार-तत्व के स्थान पर संघर्ष तथा समझौतों के रूप (जो आज शांतिपूर्ण होता है, कल युद्धपूर्ण और परसों फिर युद्धपूर्ण) का प्रश्न रखना स्तर से बहुत नीचे गिरकर एक कुतर्की की भूमिका को अपनाना है।
पूंजीवाद की नवीनतम अवस्था का युग हमें बताता है कि पूंजीवादी संघों के बीच कुछ ऐसे संबंध पैदा हो जाते हैं जो दुनिया के आर्थिक
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