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पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/११४

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अधिक मुनाफ़ा बटोर सकती है जिसमें अधीन किये गये देशों तथा जातियों की राजनीतिक स्वतंत्रता नष्ट हो जाये। इस प्रसंग में अर्द्ध-औपनिवेशिक देश "मध्यवर्ती अवस्था" का एक लाक्षणिक उदाहरण हैं। यह स्वाभाविक ही है कि इन अर्द्ध-परतंत्र देशों के लिए संघर्ष वित्तीय पूंजी के युग में, जबकि बाक़ी सारी दुनिया का बंटवारा हो चुका है, विशेष रूप से तीव्र हो जाये।

पूंजीवाद की इस नवीनतम अवस्था से पहले , और पूंजीवाद से भी पहले , औपनिवेशिक नीति तथा साम्राज्यवाद का अस्तित्व था। रोम , जिसकी स्थापना दासता की बुनियाद पर हुई थी, एक औपनिवेशिक नीति का अनुसरण करता था तथा साम्राज्यवाद के मार्ग पर चलता था। परन्तु साम्राज्यवाद के बारे में वे "स्थूल" लम्बे-चौड़े तर्क, जिनमें विभिन्न सामाजिक-आर्थिक पद्धतियों के मूलभूत अंतर को भुला दिया जाता है, या पीछे डाल दिया जाता है, अनिवार्य रूप से बहुत निम्न- स्तर की अत्यंत नीरस ओछी बातों का, या फिर ऐसी दंभपूर्ण तुलनाओं का रूप धारण कर लेते हैं जैसे “वृहत्तर रोम तथा वृहत्तर ब्रिटेन" ।*[] पूंजीवाद की पिछली अवस्थाओं की पूंजीवादी औपनिवेशिक नीति भी वित्तीय पूंजी की औपनिवेशिक नीति से मूलतः भिन्न है।

बड़े-बड़े पूंजीपतियों के इजारेदार संघों का प्रभुत्व पूंजीवाद की नवीनतम अवस्था की मुख्य विशेषता है। ये इजारेदारियां उस समय सबसे अधिक दृढ़ रूप से स्थापित हो जाती हैं जब कोई एक समूह कच्चे माल के समस्त स्रोतों पर क़ब्ज़ा कर लेता है, और हम देख चुके हैं कि अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवादी संघ इस बात के लिए किस प्रकार अपना पूरा ज़ोर लगा देते हैं कि उनके प्रतिद्वंद्वियों के लिए उनके साथ प्रतियोगिता करना असंभव हो जाये, उदाहरणार्थ, वे लोहे के खान-क्षेत्र, तेल-क्षेत्र


  1. * C. P. Lucas, «Greater Rome and Greater Britain», Oxf. 1912 (वृहत्तर रोम तथा वृहत्तर ब्रिटेन) या Earl of Cromer's &Ancient and Modern Imperialisma (प्राचीन तथा आधुनिक साम्राज्यवाद) , लंदन १९१० ।-अनु०.

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