आदि खरीद लेते हैं। केवल उपनिवेशों पर कब्जा होने से ही इजारेदारियों को अपने प्रतियोगियों के साथ संघर्ष में हर प्रकार के खतरे से मुक्त रहने की गारंटी होती है, जिसमें यह खतरा भी शामिल है कि उनके प्रतियोगी कहीं राज्य की इजारेदारी कायम करने का कानून बनाकर अपना बचाव न कर लें। पूंजीवाद जितना ही विकसित होता है, जितनी ही तीव्रता के साथ कच्चे माल की कमी अनुभव होने लगती है, प्रतियोगिता तथा सारी दुनिया में कच्चे माल की खोज जितना ही उग्र रूप धारण करती जाती है, उतनी ही ज्यादा हद तक सब कुछ दांव पर लगाकर उपनिवेशों को हथियाने का संघर्ष होने लगता है।
शिल्दर लिखते हैं , " यद्यपि संभव है कुछ लोगों को इस बात में विरोधाभास दिखायी दे पर यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि उस निकट भविष्य में ही, जिसकी कि हम कमोबेश सही-सही कल्पना कर सकते हैं , शहरों की आबादी तथा प्रौद्योगिक आबादी में वृद्धि में खाने-पीने की चीज़ों की कमी के कारण उतनी रुकावट नहीं पड़ेगी जितनी कि उद्योगों के लिए कच्चे माल की कमी के कारण। उदाहरण के लिए, लकड़ी की - जिसकी कीमत लगातार बढ़ती जा रही है, - चमड़े की और कपड़ा-उद्योग के लिए आवश्यक कच्चे माल की कमी बढ़ती जा रही है। "कारखानेदार संघ पूरे विश्व अर्थतंत्र में कृषि तथा उद्योगों के बीच एक संतुलन स्थापित करने की पूरी कोशिश कर रहे हैं; इसके एक उदाहरण के रूप में हम कई सबसे महत्वपूर्ण औद्योगिक देशों के सूत कातनेवालों के संगठनों के अन्तर्राष्ट्रीय संघ का, जिसकी स्थापना १९०४ में हुई थी, और फ्लैक्स कातनेवालों के संगठनों के यूरोपीय संघ का उल्लेख कर सकते हैं, जिसकी स्थापना उसी नमूने पर १९१० में हुई थी।"*[१]
- ↑ * Schilder, पहले उद्धृत की गयी पुस्तक , पृष्ठ ३८-४२ ।
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