पूंजीवादी सुधारवादी, और उनमें भी खास तौर पर कौत्स्की के आजकल के अनुयायी, ज़ाहिर है, इस प्रकार के तथ्यों के महत्व को कम करने की कोशिश करते हुए यह दलील देते हैं कि “महंगी और खतरनाक" "औपनिवेशिक नीति के बिना खुले बाज़ार में कच्चा माल प्राप्त करना "संभव होगा"; और यह कि कृषि की परिस्थितियों में आम तौर पर “केवल" सुधार करके कच्चे माल की उपलब्ध मात्रा को बहुत ज्यादा बढ़ा लेना “संभव होगा"। परन्तु इस प्रकार की दलीलें साम्राज्यवाद की तरफ़ से एक सफ़ाई, उस पर मुलम्मा चढ़ाने की कोशिश, बन जाती हैं क्योंकि उनमें पूंजीवाद की नवीनतम अवस्था की मुख्य विशेषता की ओर - इजारेदारियों की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जाता। खुले बाज़ार दिन-ब-दिन ज्यादा हद तक अतीत की एक चीज़ बनते जा रहे हैं, इजारेदारी सिंडीकेट तथा ट्रस्ट उन्हें दिन-ब-दिन अधिक संकुचित करते जा रहे हैं, और कृषि की परिस्थितियों में “केवल" सुधार करने का अर्थ होता है जनता के रहन-सहन के स्तर को ऊंचा उठाना, मज़दूरी बढ़ाना और मुनाफे में कमी करना। ऐसे ट्रस्ट सुधारवादियों की कल्पना के अतिरिक्त और कहां होंगे जो उपनिवेशों पर विजय प्राप्त करने के बजाय जन-साधारण की दशा में दिलचस्पी रख सकते हों?
वित्तीय पूंजी को कच्चे माल के केवल उन्हीं स्रोतों में दिलचस्पी नहीं होती जिनका पता लग चुका है, बल्कि उसे निहित स्रोतों में भी दिलचस्पी होती है, क्योंकि वर्तमान प्राविधिक विकास की रफ्तार बहुत तेज़ है और यह सम्भव है कि जो ज़मीन आज बेकार पड़ी है वह नये तरीक़ों का इस्तेमाल करके ( इन नये तरीकों का पता लगाने के लिए कोई बड़ा बैंक इंजीनियरों, कृषि विशेषज्ञों आदि का एक विशेष दल संगठित करके वहां भेज सकता है ) और बड़े परिमाण में पूंजी लगाकर कल उपजाऊ बना ली जाये। यह बात खनिज भंडारों की खोज करने,
११६