पीछे चले गये हैं। यह बात अब बिल्कुल साफ़ है कि सारे मज़दूर आन्दोलन में अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर फूट पड़ चुकी है (दूसरी और तीसरी इंटरनेशनल)। यह भी स्पष्ट है कि इस समय दोनों धाराओं के बीच सशस्त्र संघर्ष और गृह-युद्ध छिड़ा हुआ है: रूस में बोल्शेविकों के विरुद्ध कोल्चाक और देनीकिन को मेन्शेविकों और “समाजवादी-क्रांतिकारियों" की सहायता, जर्मनी में पूंजीपति वर्ग के साथ मिलकर शीदेमानवादियों, नोस्के आदि की स्पर्टकवादियों⁵ के खिलाफ़ लड़ाई, तथा फ़िनलैंड, पोलैंड, हंगरी आदि में इसी तरह की चीजें। तो फिर ऐतिहासिक दृष्टि से विश्वव्यापी महत्व रखनेवाली इस घटना का आर्थिक आधार क्या है?
इसका आधार पूंजीवाद का परजीवी स्वरूप और ह्रास ही है जो कि उसके विकास की चरम ऐतिहासिक अवस्था में, अर्थात् साम्राज्यवादी अवस्था में, उसकी विशेषता होती हैं। जैसा कि इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है, पूंजीवाद ने अब मुट्ठी-भर (दुनिया की आबादी के दसवें हिस्से से भी कम; अधिक से अधिक “दरिया-दिली" और उदारता से हिसाब लगाया जाये तब भी आबादी के पांचवें हिस्से से कम) असाधारण रूप से धनी और शक्तिशाली राज्यों को चुन लिया है जो केवल “कूपन काटकर" सारी दुनिया को लूट रहे हैं। युद्ध से पहले की कीमतों और पूंजीवादी आंकड़ों के अनुसार पूंजी के निर्यात से हर साल आठ या दस अरब फ्रांक की आमदनी होती थी। अब तो निस्संदेह यह आमदनी बहुत बढ़ गयी है।
यह स्पष्ट है कि ऐसे विराट अतिरिक्त मुनाफे में से (इसलिए कि यह मुनाफ़ा उस सब मुनाफ़े के ऊपर और उसके अलावा है जो पूंजीपति "अपने" देश के मजदूरों का शोषण करके इकट्ठा करते हैं) मजदूर नेताओं को और रईस मजदूरों के उच्च स्तर को घूस देकर अपनी ओर कर लेना बिल्कुल संभव है। और “आगे बढ़े हुए" देशों के पूंजीवादी उन्हें घूस दे भी रहे हैं; वे उन्हें हज़ारों तरह के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष, खुल्लमखुल्ला और छुपे-ढके तरीकों से घूस देते हैं।
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