एकबद्ध वित्तीय पूंजी द्वारा दुनिया के संयुक्त शोषण"*[१] की मंज़िल होगी।
हमें इस "अति-साम्राज्यवाद के सिद्धांत" पर आगे चलकर विचार करना होगा ताकि विस्तारपूर्वक यह बताया जा सके कि वह किस प्रकार निश्चित रूप से तथा पूर्णतः मार्क्सवाद से भिन्न है। इस समय, प्रस्तुत रचना की ग्राम योजना के अनुसार, हम इस प्रश्न से संबंधित सही-सही आर्थिक तथ्य-सामग्री की छानबीन करेंगे। "शुद्धतः आर्थिक दृष्टिकोण से" क्या "अति-साम्राज्यवाद" संभव है, या वह अति- बकवास है?
यदि शुद्धतः आर्थिक दृष्टिकोण से अभिप्राय “शुद्ध" अमूर्त विचार है तो इस संबंध में जो कुछ भी कहा जा सकता है वह केवल निम्नलिखित प्रस्थापना तक ही सीमित रह जाता हैं: विकास इजारेदारियों की ओर बढ़ रहा है, इसलिए, प्रवृत्ति सारी दुनिया की एक ही इजारेदारी की ओर है, अर्थात् सारी दुनिया के एक ही ट्रस्ट की ओर। यह अकाट्य बात है, परन्तु साथ ही यह उतनी ही पूर्णतः निरर्थक भी है जितना कि यह कहना कि “विकास” प्रयोगशालाओं में खाद्य सामग्री के उत्पादन की दिशा में “बढ़ रहा है”। इस दृष्टि से अति-साम्राज्यवाद का “सिद्धान्त” “अति कृषि के सिद्धां” से कम बेतुका नहीं है।
परन्तु यदि हम इतिहास की दृष्टि से एक निश्चित युग के रूप में, वित्तीय पूंजी के युग की “शुद्धतः आर्थिक” परिस्थितियों पर विचार करें जो बीसवीं शताब्दी के आरंभ में शुरू हुआ था, तो “अति-साम्राज्यवाद” की निर्जीव कल्पनाओं का (जो केवल एक अत्यंत प्रतिक्रियावादी उद्देश्य को पूरा करती हैं : मौजूदा विग्रहों की गहराई की तरफ़ से ध्यान हटाने
- ↑ * «Die Neue Zeity » १९१५, १, पृष्ठ १४४, ३० अप्रैल , १९१५।
१३२