पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१४४

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«Die Bank» नामक पत्रिका के प्रकाशक थे, १९११ में अपने "जर्मनी—एक सूदखोर राज्य" शीर्षक लेख में लिखा: "फ्रांस के लोगों में सूदखोर बनने की जो लालसा पायी जाती है उसे जर्मनी के लोग हमेशा बड़े तिरस्कार की दृष्टि से देखा करते हैं। परन्तु वे इस बात को भूल जाते हैं कि जहां तक पूंजीपति वर्ग का सवाल है जर्मनी में भी परिस्थिति अधिकाधिक फ़्रांस जैसी ही होती जा रही है।"*[१]

सूदखोर राज्य परजीवी ह्रासोन्मुख पूंजीवाद का राज्य है और इस बात का प्रभाव संबंधित देशों की सभी सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर आम तौर पर, और मजदूर वर्ग के आंदोलन की दो मूलभूत धाराओं पर खास तौर पर, पड़े बिना नहीं रह सकता। इस बात को यथासंभव स्पष्टतम रूप में व्यक्त करने के लिए हम हाबसन का उद्धरण देंगे, जो सबसे "विश्वसनीय" गवाह हैं क्योंकि उन पर "मार्क्सवादी कट्टरपंथ" की ओर झुकाव रखने की शंका नहीं की जा सकती; दूसरी ओर वह अंग्रेज़ हैं, जो उस देश की परिस्थिति से भली भांति परिचित हैं जो उपनिवेशों के मामले में, वित्तीय पूंजी के मामले में तथा साम्राज्यवादी अनुभव के मामले में, सबसे समृद्ध हैं।

हाबसन के दिमाग में अंग्रेज़-बोएर युद्ध की याद ताजा थी और वह साम्राज्यवाद तथा "पूंजी लगानेवालों" के हितों के पारस्परिक संबंध, ठेकों से होनेवाले बढ़ते हुए मुनाफ़ों आदि का उल्लेख करते हैं और लिखते हैं: "यद्यपि इस निश्चित रूप से परजीवी नीति के संचालक पूंजीपति हैं, परन्तु यही उद्देश्य मज़दूरों के कुछ वर्गों को भी पसंद आते हैं। कई शहरों में उद्योग की सबसे महत्वपूर्ण शाखाएं सरकारी रोज़गार या ठेकों पर निर्भर रहती हैं; धातु के तथा जहाज़ बनाने के केंद्रों का साम्राज्यवाद काफ़ी बड़ी हद तक इसी बात पर निर्भर करता


  1. * «Die Bank», १९११, १, पृष्ठ १०-११।

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