पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१४५

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है।" इस लेखक की राय में पुराने साम्राज्य दो कारणों से कमजोर हुए हैं: (१) "आर्थिक परजीविता", और (२) पराश्रित जातियों के लोगों के आधार पर सेना का संगठन। "पहले तो आर्थिक परजीविता का स्वभाव है, जिसके वश शासक राज्य ने अपने प्रांतों, उपनिवेशों तथा आश्रित देशों को अपने शासक वर्ग को धनवान बनाने तथा निम्नतर वर्गों को रिश्वत देकर चुपचाप राज़ी कर लेने के लिए इस्तेमाल किया है।" और हम इसके साथ इतना और कहेंगे कि इस प्रकार की रिश्वत देने की आर्थिक संभावना के लिए, भले ही उसका कोई भी रूप हो, बहुत ऊंचे इजारेदारी मुनाफ़ों की आवश्यकता होती है।

दूसरे कारण के बारे में हाबसन लिखते हैं: "ग्रेट ब्रिटेन, फ़्रांस तथा अन्य साम्राज्यधारी राष्ट्र आगा-पीछा सोचे बिना जिस निश्चिंतता के साथ इस खतरनाक मार्ग पर प्रवेश कर रहे हैं, वह साम्राज्यवाद के अंधेपन की एक सबसे अद्भुत पहचान है। ग्रेट ब्रिटेन सबसे आगे निकल गया है। जिन लड़ाइयों द्वारा हमने अपने भारतीय साम्राज्य की स्थापना की है उनमें अधिकांशतः वहीं के निवासी लड़े थे, जैसा कि अभी हाल में मिस्र में हुआ है, भारत में भी बड़ी-बड़ी स्थायी सेनाएं ब्रिटिश सेनानायकों के आधीन कर दी गयी हैं; हमारे अफ़्रीकी राज्यों के सिलसिले में, दक्षिणी भाग को छोड़कर, जितनी भी लड़ाइयां हुई हैं उनमें भी हमारी तरफ़ से अधिकांश लड़ाइयां वहां के निवासियों ने ही की हैं।"

चीन के विभाजन के बाद परिस्थिति क्या हो जायेगी इसका आर्थिक दृष्टि से मूल्यांकन करते हुए हाबसन लिखते हैं: "उस दशा में यह संभव है कि पश्चिमी यूरोप के अधिकांश भाग की सूरत-शक्ल और विशेषताएं वही हो जायें जो हम इस समय भी इंगलैंड के दक्षिणी भाग के कुछ हिस्सों में, रिव्येरा में और इटली तथा स्विट्ज़रलैंड के धनिकों के रहायशी इलाक़ों में या उन हिस्सों में देखते हैं जहां सैर

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