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पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१५६

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हम एक उदाहरण देंगे। "विश्व अथतंत्र की पुरालेखशाला" नामक पत्रिका में जर्मन साम्राज्यवादियों ने उपनिवेशों में, ज़ाहिर है विशेषतः उन उपनिवेशों में जिनपर जर्मनी का क़ब्ज़ा नहीं है, राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलनों को देखने की कोशिश की है। वे भारत में असंतोष तथा विरोध आंदोलनों का, नाटाल (दक्षिणी अफ्रीका), डच ईस्ट इंडीज़, आदि के आंदोलनों का उल्लेख करते हैं। उनमें से एक ने, विभिन्न पराधीन राष्ट्रों तथा जातियों—एशिया, अफ्रीका तथा यूरोप की विदेशी शासन के अधीन जातियों—के प्रतिनिधियों के एक सम्मेलन की, जो २८-३० जून, १९१० को हुआ था, अंग्रेज़ी रिपोर्ट पर अपनी टीका में इस सम्मेलन में दिये गये भाषणों का मूल्यांकन करते हुए लिखा है: "हमसे कहा जाता है कि हमें साम्राज्यवाद के खिलाफ़ लड़ना चाहिए; कि शासक राज्यों को पराधीन जातियों के स्वतंत्रता के अधिकार को स्वीकार करना चाहिए; कि बड़ी ताक़तों और कमज़ोर राष्ट्रों के बीच जो संधियां हों उनके परिपालन पर निगरानी रखने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय होना चाहिए। वे इस प्रकार की सुखद इच्छाएं व्यक्त करने से आगे नहीं बढ़ते। हम उसमें इस बात को समझने की कहीं झलक भी नहीं पाते कि साम्राज्यवाद का पूंजीवाद के वर्तमान रूप के साथ अटूट संबंध है और इसलिए (!!) साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ खुले संघर्ष के सफल होने की कोई आशा नहीं हो सकती, यदि संघर्ष कदाचित् केवल उसके कुछ विशेषतः घृणास्पद अत्याचारों के खिलाफ़ विरोध करने तक ही सीमित हो तो बात और है।"*[] चूंकि साम्राज्यवाद के आधार में सुधार करने की बात एक धोखा है, 'एक कोरी इच्छा" है, चूंकि उत्पीड़ित राष्ट्रों के पूंजीवादी प्रतिनिधि इससे "और ज़्यादा" आगे नहीं बढ़ते, इसलिए एक उत्पीड़क राष्ट्र का पूंजीवादी प्रतिनिधि


  1. * Weltwirtschaftliches Archiv, खण्ड २, पृष्ठ १९३।

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