पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१६१

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पुनःस्थापित करने का आदर्श नहीं हो सकता है—जो कि अब एक प्रतिक्रियावादी आदर्श बन चुका है—बल्कि उसका लक्ष्य होना चाहिए पूंजीवाद के उन्मूलन द्वारा प्रतियोगिता का पूर्णतः अंत करना।"*[१]

कौत्स्की ने वित्तीय पूंजी के युग में एक "प्रतिक्रियावादी आदर्श" का, "शांतिपूर्ण जनवाद" का, "केवल आर्थिक तत्वों की क्रिया" का समर्थन करके मार्क्सवाद के साथ अपना नाता तोड़ लिया, क्योंकि, वस्तुगत दृष्टि से, यह आदर्श हमें इजारेदार पूंजीवाद से पीछे की ओर, ग़ैर-इजारेदार पूंजीवाद की ओर खींच ले जाता है और यह एक सुधारवादी धोखेबाज़ी है।

मिस्र के साथ व्यापार (या किसी दूसरे उपनिवेश अथवा अर्धउपनिवेश के साथ) सैनिक आधिपत्य के बिना, साम्राज्यवाद के बिना तथा वित्तीय पूंजी के बिना "ज़्यादा बढ़ा होता"। इसका क्या मतलब है? यदि आम तौर पर इजारेदारियों के, वित्तीय पूंजी के "संबंधों" या जुए (अर्थात् इजारेदारी भी) के कारण या कुछ देशों के उपनिवेशों पर इजारेदारी आधिपत्य के कारण खुली प्रतियोगिता को सीमित न किया गया होता तो पूंजीवाद का विकास और भी तीव्र गति से होता?

कौत्स्की की दलील का और कोई अर्थ हो ही नहीं सकता, और यह "अर्थ" निरर्थक है। यदि तर्क की दृष्टि से यह मान भी लिया जाये कि किसी भी प्रकार की इजारेदारी के बिना खुली प्रतियोगिता ने पूंजीवाद तथा व्यापार को और तीव्र गति से विकसित किया होता, तो क्या यह सच नहीं कि जितनी तेजी से व्यापार तथा पूंजीवाद का विकास होता है उतना ही उत्पादन तथा पूंजी का संकेंद्रण भी बढ़ता है, जो इजारेदारी


  1. * "वित्तीय पूंजी", पृष्ठ ५६७।
11—1838
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