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पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१७७

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पूंजीवादी समाज की सभी आर्थिक तथा राजनीतिक संस्थानों पर निर्भरता के संबंधों का एक घना जाल डाल देता है।

चौथी बात, इजारेदारी औपनिवेशिक नीति से उत्पन्न हुई है। औपनिवेशिक नीति के अनेक "पुराने" उद्देश्यों के साथ वित्तीय पूंजी ने कच्चे माल के स्रोतों के लिए, पूंजी के निर्यात के लिए, "प्रभाव क्षेत्रों" के लिए, अर्थात् ऐसे क्षेत्रों के लिए जहां लाभप्रद सौदे किये जा सकें, रिआयतें हासिल की जा सकें, इजारेदारी मुनाफा कमाया जा सके आदि, और अंततः आम तौर पर आर्थिक दृष्टि से उपयोगी इलाक़ों के लिए संघर्ष और जोड़ दिया है। जिस समय अफ़्रीका में यूरोपीय ताक़तों के उपनिवेश, उदाहरण के लिए, वहां के कुल क्षेत्र के लगभग दसवें भाग के बराबर थे (जैसी परिस्थिति कि १८७६ में थी), उस समय औपनिवेशिक नीति इजारेदारी के तरीक़ों से नहीं, वरन् अन्य तरीक़ों से–एक प्रकार से, इलाक़ों को "बेरोकटोक हथिया लेने" के तरीकों से–विकसित हो सकती थी। परन्तु जब अफ़्रीका के नब्बे प्रतिशत भाग पर (१९०० तक) क़ब्ज़ा कर लिया गया, जब सारी दुनिया का बंटवारा हो गया, तब अनिवार्य रूप से उपनिवेशों पर इजारेदार स्वामित्व के युग का, और फलस्वरूप दुनिया के विभाजन तथा पुनर्विभाजन के लिए विशेष रूप से भीषण संघर्ष के युग का श्रीगणेश हुआ।

यह बात सर्वविदित है कि इजारेदार पूंजी ने पूंजीवाद के अन्तर्विरोधों को कितना गहरा बना दिया है। महंगाई तथा कार्टेलों के अत्याचारों का ही उल्लेख कर देना काफ़ी है। विरोधों का इस प्रकार उग्र होना इतिहास के उस संक्रमणकालीन युग की सबसे प्रबल प्रेरकशक्ति है, जो विश्वव्यापी वित्तीय पूंजी की अंतिम विजय के समय से आरंभ हुआ।

इजारेदारियों, अल्पतंत्र, स्वतंत्रता के बजाय प्रभुत्व की चेष्टा, मुट्ठी-भर सबसे धनवान तथा सबसे ताक़तवर राष्ट्रों द्वारा बढ़ती हुई

12–1838
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