संख्या में छोटे या कमज़ोर राष्ट्रों का शोषण–इन तमाम बातों ने साम्राज्यवाद की उन लाक्षणिक विशेषताओं को जन्म दिया है जिनके कारण हमें उसको परजीवी अथवा ह्रासोन्मुख पूंजीवाद कहने पर विवश होना पड़ता है। साम्राज्यवाद की एक प्रवृत्ति के रूप में उस "सूदख़ोर राज्य", महाजन राज्य का निर्माण दिन प्रति दिन ज्यादा उभरकर सामने आता है, जिसमें पूंजीपति वर्ग निरंतर बढ़ती हुई हद तक पूंजी के निर्यात से होनेवाली आय पर और "कूपन काटकर" जीवित रहता है। यह समझना भूल होगी कि ह्रास की इस प्रवृत्ति का मतलब यह है कि पूंजीवाद का तीव्र गति से विकास असंभव है। ऐसा नहीं होता। साम्राज्यवाद के युग में उद्योगों की कुछ शाखाएं, पूंजीपति वर्ग के कुछ स्तर और कुछ देश, कम या ज़्यादा हद तक, इन प्रवृत्तियों में से कभी एक और कभी दूसरी का परिचय देते हैं। कुल मिलाकर, पूंजीवाद का विकास पहले की अपेक्षा बहुत तेजी से हो रहा है; परन्तु न केवल यह विकास आम तौर पर अधिकाधिक असमान होता जा रहा है बल्कि यह भी हो रहा है कि यह असमानता विशेष रूप से उन देशों के ह्रास में व्यक्त होती है जो पूंजी के मामले में सबसे धनी हैं (इंगलैंड)।
जर्मनी के आर्थिक विकास की तीव्र गति के बारे में रीसेर, जिन्होंने जर्मनी के बड़े-बड़े बैंकों पर एक पुस्तक लिखी है, कहते हैं : "पिछले काल (१८४८-७०) की प्रगति, जिसे धीमी कहना सर्वथा उपयुक्त न होगा, इस काल (१८७०-१६०५) के दौरान में जर्मनी के पूरे राष्ट्रीय अर्थतंत्र की और उसके साथ जर्मनी के बैंकों के कारोबार की प्रगति के वेग की तुलना में उतनी ही धीमी थी जितनी कि पुराने ज़माने की डाक ले जानेवाली घोड़ागाड़ियां आजकल की मोटरों के मुक़ाबले में धीमी होती थीं… आजकल की मोटर इतनी तेज़ी से सरपट भागी जा रही है कि उससे न केवल उसके रास्ते के निर्दोष पैदल
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