पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/१८३

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है …) … "जिन प्रवृत्तियों का हमने उल्लेख किया है यदि उनकी कल्पना हम उनके विकास की परिणति के रूप में करें तो हम देखेंगे कि : राष्ट्र की सारी द्रव्य पूंजी बैंकों में एकबद्ध हो गयी है; बैंकों ने स्वयं मिलकर कार्टेलों का धारण कर लिया है; राष्ट्र की कारोबार में लगायी जानेवाली पूंजी प्रतिभूतियों के रूप में ढल गयी है। तब उस मेधावी पुरुष सेंट-साइमन की भविष्यवाणी पूरी हो जायेगी : 'उत्पादन की वर्तमान अराजकता को, जो इस बात के सर्वथा अनुकूल है कि आर्थिक संबंध बिना किसी एकरूप नियमन के विकसित हो रहे हैं, उत्पादन में संगठन के लिए जगह खाली करनी पड़ेगी। तब उत्पादन का निर्देशन उन अलग-अलग उत्पादकों के हाथ में नहीं रह जायेगा, जो एक-दूसरे से स्वतंत्र होते हैं और जिन्हें मनुष्य की आर्थिक आवश्यकताओं का कोई ज्ञान नहीं होता; यह काम किसी सार्वजनिक संस्था के हाथों में होगा। केंद्रीय व्यवस्थापन समिति, जो सामाजिक अर्थतंत्र के विस्तृत क्षेत्र का सर्वेक्षण ज्यादा ऊंचाई से कर सकेगी, वह उस अर्थतंत्र का नियमन पूरे समाज के हित में करेगी, वह उत्पादन के साधन उचित हाथों में सौंप देगी, और सबसे बढ़कर वह इस बात का ध्यान रखेगी कि पैदावार तथा खपत के बीच निरंतर एक सामंजस्य रहे। इस प्रकार की संस्थाएं इस समय भी मौजूद हैं जिन्होंने आर्थिक श्रम के संगठन को कुछ हद तक अपने काम के एक हिस्से के रूप में अंगीकार कर लिया है : ये संस्थाएं बैंक हैं।' हम सेंट-साइमन की भविष्यवाणी के पूरा होने से अभी बहुत दूर हैं पर हम उसकी दिशा में आगे बढ़ रहे हैं : यह मार्क्सवाद है, मार्क्स ने जिस रूप में उसकी कल्पना की थी उससे भिन्न, पर केवल रूप में ही भिन्न।"[१]

 

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  1. Grundriss der Sozialõkonomik (सामाजिक अर्थशास्त्र के सिद्धांत–अनु॰), पृष्ठ १४६।