साम्राज्यवादी मंजिल में पूंजीवाद उत्पादन के पूर्णतम सामाजीकरण के द्वार पर आ पहुंचता है; वह पूंजीपतियों को 'मानो उनकी मर्जी के विरुद्ध और अनजाने ही एक नयी समाज-व्यवस्था में खींच लाता है, जो पूर्ण खुली प्रतियोगिता से पूरे सामाजीकरण के बीच की संक्रमणकालीन समाज-व्यवस्था होती है।
उत्पादन सामाजिक हो जाता है, पर उसका फ़ायदा कुछ व्यक्ति ही उठाते हैं । उत्पादन के सामाजिक साधन कुछ लोगों की ही निजी सम्पत्ति बने रहते हैं। ऊपरी तौर पर खुली प्रतियोगिता का साधारण ढांचा तो बना रहता है, पर बाक़ी जनता पर कुछ थोड़े-से इजारेदारों का जूआ सौ गुना भारी , और भी तकलीफ़देह और असह्य हो उठता है।
जर्मन अर्थशास्त्री, केस्टनर ने एक किताब खास तौर पर "कार्टेलों और बाहरी लोगों के बीच संघर्ष " के विषय पर लिखी है। बाहरी लोगों से उनका मतलब कार्टेलों के बाहर वाले कारखानेदारों से है। उन्होंने अपनी पुस्तक का नाम रखा है “अनिवार्य संगठन", पर पूंजीवाद को उसके असली रूप में पेश करने के लिए उन्हें, जाहिर है, इजारेदार संघों के आगे अनिवार्य आत्म-समर्पण के बारे में लिखना चाहिए था। कम से कम उस सूची पर एक सरसरी दृष्टि डाल लेना शिक्षाप्रद है, जिसमें वे सब तरीके गिनाये गये हैं जिनका कि इजारेदार संघ "संगठन" के वर्तमान , नवीनतम तथा सभ्य संघर्ष में सहारा लेते हैं : (१) कच्चे माल की सप्लाई बंद कर देना (... “कार्टेल के अन्दर आने के लिए बाध्य करने का यह एक सबसे महत्वपूर्ण उपाय है"); (२) "समझौतों" के द्वारा मजदूरों का मिलना बंद कर देना (अर्थात् पूंजीपतियों और ट्रेड-यूनियनों के बीच समझौते जिसके द्वारा ट्रेड-यूनियन अपने सदस्यों को केवल कार्टेल के कारखानों में ही काम करने की इजाजत देते हैं ); (३) माल की डिलीवरी को बंद कर देना; (४) व्यापार के रास्तों को रोक देना; (५) खरीदारों के साथ समझौते
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