पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/३२

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जिनके कारण वे केवल कार्टेलों से ही व्यापार करने का वचन दे देते हैं; (६) व्यवस्थित रूप से कीमतें गिराना (“बाहरी" फ़र्मों को, यानी जो इजारेदारों की बात मानने से इनकार करें, तबाह कर देने के लिए कुछ दिनों तक माल को उसकी लागत से भी नीची दर पर बेचने में लाखों रुपये खर्च कर दिये जाते हैं। ऐसा कई बार हुआ है जब इसी उद्देश्य से बेन्ज़ीन की दर ४० मार्क से घटाकर २२ मार्क , यानी लगभग आधी , कर दी गयी थी ! ); (७) उधार देना बंद कर देना; (८) वहिष्कार करना।

अब यह छोटे और बड़े पैमाने के उद्योगों की , या प्राविधिक दृष्टि से बढ़े हुए और पिछड़े हुए कारखानों की प्रतियोगिता नहीं रह गयी। यहां हम देखते हैं कि जो कारखाने इजारेदारों की बात नहीं मानते , उनके जूए में अपना कंधा नहीं फंसाते , उनके इशारों पर नहीं नाचते , उन्हें इजारेदार गला घोंटकर मार डालना चाहते हैं। एक पूंजीवादी अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को किस भांति देखता है , यह इससे मालूम हो जाता हैः

केस्टनर लिखते हैं : “विशुद्ध आर्थिक क्षेत्र में भी पुराने ढंग का व्यापारिक कामकाज बदलकर संगठनात्मक-सट्टेबाजी के कामकाज की तरफ़ बढ़ रहा है। सबसे ज्यादा सफलता अब उस व्यापारी को नहीं मिलती जो अपने प्राविधिक और व्यावसायिक अनुभव के कारण खरीदार की आवश्यकता को सबसे अच्छी तरह समझ सकता हो और जो एक छिपी हुई मांग का पता लगा सकता हो और निहित मांग को सफलतापूर्वक "जगा” सकता हो। अब सफलता सट्टेबाजी की प्रतिभावाले (!) उस आदमी को मिलती है जो अलग-अलग कारखानों और बैंकों के बीच कुछ खास संबंधों के संगठनात्मक विकास का, उनकी संभावनाओं का, पहले से ही अनुमान लगा सकता हो, या कम से कम उन्हें पहले से महसूस कर सकता हो..."

साधारण मानवी भाषा में इसका अर्थ यह है कि पूंजीवाद का विकास

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