पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/३६

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पूंजीवाद के एक अत्यंत निर्लज्ज समर्थक लिएफ़मैन ने लिखा है : "कोई आर्थिक व्यवस्था जितनी ही अधिक विकसित होती है, उतनी ही अधिक वह खतरे से भरे कारोबारों में या विदेशों में स्थित कारखानों में हाथ डालती है, ऐसे कारखाने जिनके विकसित होने में बहुत ज्यादा समय लगता है, या फिर अंत में वह ऐसे कारखानों में हाथ डालती है जिनका महत्व केवल स्थानीय होता है।*[१] ज्यादा खतरे का संबंध, दीर्घ काल की दृष्टि से, पूंजी की अपार वृद्धि के साथ है जो मानो छलककर विदेशों आदि की ओर प्रवाहित होने लगती है। ही साथ, तेजी के साथ होनेवाली प्राविधिक प्रगति के कारण राष्ट्रीय अर्थतंत्र के विभिन्न क्षेत्रों में विषमता के तत्व अधिकाधिक गड़बड़ी बढ़ाने लगते हैं और अराजकता तथा संकट पैदा हो जाते हैं। लिएफ़मैन को यह मानने के लिए लाचार होना पड़ा है कि : इस बात की पूरी संभावना है कि निकट भविष्य में ही मनुष्य-जाति को और भी महत्वपूर्ण प्राविधिक क्रांतियां देखनी पड़े, जिनका आर्थिक व्यवस्था के संगठन पर भी प्रभाव पड़ेगा"... बिजली और हवाई यातायात... "आम तौर पर बुनियादी आर्थिक परिवर्तनों के ऐसे युगों में सट्टेबाजी बड़े पैमाने पर होने लगती है।"**[२]

हर प्रकार के संकट - ज़्यादातर आर्थिक संकट ही, लेकिन केवल ये ही नहीं- उत्पादन के संकेंद्रण और इजारेदारी की प्रवृत्ति को बहुत काफ़ी बढ़ा देते हैं। इस संबंध में १६०० के संकट के महत्व के बारे में, जिस संकट से, जैसा कि हम ऊपर देख चुके हैं , आधुनिक इजारेदारियों के इतिहास में एक नया अध्याय शुरू हुआ था, जीडेल्स के निम्नलिखित विचार अत्यंत शिक्षाप्रद हैं :


  1. * Liefmann, , «Beteiligungs- und Finanzierungsgesellschaften», पृष्ठ ४३४॥
  2. उपरोक्त पुस्तक , पृष्ठ ४६५-४६६ ।

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