तो ये सारे काम किसी भी प्रकार उस व्यवसायी की स्वतंत्रता को कम नहीं करते और इसमें बैंक की भूमिका एक सीधे-सादे बिचवान के अतिरिक्त और कुछ नहीं होती। परन्तु जब इस प्रकार के लेन-देन संख्या में बहुत बढ़ जाते हैं और एक स्थायी व्यवहार का रूप धारण कर लेते हैं, जब बैंक अपने हाथों में विपुल पूंजी “एकत्रित" कर लेते हैं, जब किसी कारखाने के चालू खाते का हिसाब-किताब रखने से बैंक अपने ग्राहक की आर्थिक दशा के बारे में ज्यादा पूर्ण और ज्यादा विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की स्थिति में हो जाता है - और होता भी यही है - तो इसका परिणाम यह होता है कि औद्योगिक पूंजीपति और भी पूरी तरह बैंक पर निर्भर हो जाता है।
इसके साथ ही बैंकों और बड़े-बड़े औद्योगिक तथा वाणिज्यिक कारोबारों के बीच एक प्रकार का वैयक्तिक संबंध स्थापित हो जाता है, बैंक इन औद्योगिक तथा वाणिज्यिक कारोबारों के और ये कारोबार इन बैंकों के निरीक्षण मंडलों (या संचालक मंडलों) में अपने अपने संचालक नियुक्त करके या एक-दूसरे के शेयर खरीदकर एक-दूसरे में विलीन हो जाते हैं। जर्मन अर्थशास्त्री जीडेल्स ने पूंजी तथा कारोबारों के संकेंद्रण के इस रूप के बारे में अत्यंत विस्तृत आंकड़े संकलित किये हैं। बर्लिन के छः सबसे बड़े बैंकों का प्रतिनिधित्व अपने संचालकों के ज़रिये ३४४ औद्योगिक कम्पनियों में था, और ४०७ दूसरी कम्पनियों में इन बैंकों का प्रतिनिधित्व अपने बोर्ड के सदस्यों के जरिये था, यानी कुल मिलाकर ७५१ कम्पनियों में इनका प्रतिनिधित्व था। इसमें से २८६ कम्पनियां ऐसी थीं जिनमें से हर एक के निरीक्षण मंडल में उनके दो-दो प्रतिनिधि थे, या फिर उनके प्रतिनिधि इन मंडलों के अध्यक्ष थे। हमें इस प्रकार की औद्योगिक तथा वाणिज्यिक कम्पनियां उद्योगों की विविधतम शाखाओं में मिलती हैंः बीमा, यातायात , रेस्तोरां, थिएटर, कला उद्योग, आदि। दूसरी ओर इन छ: बैंकों के निरीक्षण मंडलों में (१९१० में) इक्यावन सबसे बड़े उद्योगपति
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