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इस पुस्तक में सिद्ध किया गया है कि १९१४-१८ का महायुद्ध दोनों पक्षों की ओर से साम्राज्यवादी युद्ध (यानी दूसरे देशों को हड़पने का, लूटमार और डकैती का युद्ध) था। वह युद्ध दुनिया के बंटवारे के लिए, उपनिवेशों के विभाजन और पुनर्विभाजन के लिए, वित्तीय पूंजी के "प्रभाव क्षेत्रों" आदि के लिए लड़ा गया था।
युद्ध के असली सामाजिक स्वरूप का, बल्कि असली वर्ग-स्वरूप का प्रमाण, स्वाभाविक है, युद्ध के कूटनीतिक इतिहास में नहीं बल्कि युद्ध में शामिल होने वाले तमाम देशों के शासक वर्गों की वस्तुगत स्थिति के विश्लेषण में मिलता है। इस वस्तुगत स्थिति का चित्रण करने के लिए उदाहरणों या अलग-अलग तथ्यों को नहीं (सामाजिक जीवन की घटनाओं की अत्यधिक जटिलता के कारण उसमें से कितने ही उदाहरणों या अलग-अलग तथ्यों को चुनकर किसी भी बात को सिद्ध किया जा सकता है), बल्कि लड़नेवाले तमाम देशों के और पूरी दुनिया के आर्थिक जीवन के आधार से संबंधित सम्पूर्ण तथ्यों को लेना चाहिए।
१८७६ और १९१४ में दुनिया के बंटवारे का (छठे अध्याय में), १८९० और १९१३ में सारी दुनिया में रेलों के वितरण का (सातवें अध्याय में) वर्णन करने के लिए मैंने ऐसे ही संक्षिप्त अकाट्य तथ्यों को इस्तेमाल किया है। रेलें मूल पूंजीवादी उद्योगों- कोयला, लोहा और इस्पात - का योगफल हैं; योगफल और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार और पूंजीवादी-जनवादी सभ्यता के विकास के सबसे स्पष्ट सूचक हैं। पुस्तक के इससे पहले के अध्यायों में मैंने यह दिखाया है कि रेलें किस प्रकार बड़े पैमाने के उद्योगों से, इजारेदारियों, सिंडीकेटों, कार्टेलों, ट्रस्टों, बैंकों और वित्तीय अल्पतन्त्र से संबंधित हैं। रेलों का असमान वितरण, उनका असमान विकास- मानो विश्वव्यापी पैमाने पर आधुनिक इजारेदार पूंजीवाद का निचोड़ है।
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