पृष्ठ:साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था.djvu/९

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और यह निचोड़ इस बात को साबित करता है कि ऐसी आर्थिक व्यवस्था जब तक उत्पादन के साधन निजी सम्पत्ति हैं, साम्राज्यवादी युद्धों का होना एकदम अनिवार्य है।

रेलों का बनाना एक सीधा-सादा, स्वाभाविक, जनवादी, सांस्कृतिक तथा सभ्य बनानेवाला काम जान पड़ता है; पूंजीवादी प्रोफ़ेसरों की राय में, जिन्हें पूंजीवादी गुलामी का तड़क-भड़क के साथ वर्णन करने के लिए पैसा दिया जाता है, और निम्न-पूंजीवादी कूपमंडूकों की राय में तो वह ऐसा ही है। किन्तु पूंजीवादी डोरों ने जो इन उद्योगों को हज़ारों विभिन्न गांठों के ज़रिये उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व की आम व्यवस्था से बांधे हुए हैं, रेलों के बनाने के इस काम को (उपनिवेशों और अर्द्ध- उपनिवेशों में) एक अरब लोगों के उत्पीड़न का, अर्थात् पराधीन देशों में बसनेवाली पृथ्वी की आधी से ज्यादा आबादी और “सभ्य" देशों में रहने वाले पूंजी के मज़दूर-गुलामों के उत्पीड़न का हथियार बना दिया है।

छोटे-छोटे मालिकों की मेहनत पर आधारित निजी सम्पत्ति, मुक्त प्रतियोगित, जनवाद अर्थात् वे तमाम आकर्षक शब्द जिनके ज़रिये पूंजीपति और उनके अखबार मज़दूरों और किसानों को धोखा देते हैं―बीते हुए ज़माने की बातें बन चुके हैं। पूंजीवाद आज विकसित होकर कुछ मुट्ठी-भर "आगे बढ़े हुए" देशों द्वारा औपनिवेशिक उत्पीड़न की और वित्तीय दृष्टि से दुनिया की आबादी के विशाल बहुमत का गला घोंटनेवाली विश्वव्यापी व्यवस्था का रूप धारण कर चुका है। और इस “लूट के माल" को दुनिया भर में लूटमार करनेवाले दो-तीन शक्तिशाली लुटेरे (अमरीका, ग्रेट ब्रिटेन, जापान), जो सिर से पैर तक हथियारों से लैस हैं, आपस में बांट लेते हैं और जो अपने लूट के माल के बंटवारे के लिए अपनी लड़ाई में सारी दुनिया को घसीट लेते हैं।