एक वित्त-सम्राट् फान विनर ने, जो «Deutsche Bank» के एक संचालक भी थे, अपने प्राइवेट सेक्रेटरी स्टास की मार्फत तेल की राज्यीय इजारेदारी के लिए एक मुहिम शुरू की। विशाल जर्मन बैंक के विशाल संगठन तथा उसके समस्त व्यापक "सम्पर्क" इस काम में जुटा दिये गये। अखबारों में अमरीकी ट्रस्ट के “जूए" के खिलाफ़ 'देशभक्तिपूर्ण" क्रोध उबल पड़ा और १५ मार्च, १९११ को राइखस्टाग ने लगभग सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव स्वीकार किया जिसमें सरकार से तेल की एक इजारेदारी स्थापित करने का अनुरोध किया गया था। सरकार ने इस लोकप्रिय विचार को तुरन्त स्वीकार कर लिया और ऐसा प्रतीत होने लगा कि «Deutsche Bank» की चाल, जो अपने अमरीकी साझेदार को धोखा देने और राज्यीय इजारेदारी द्वारा अपने कारोबार को चमकाने की आशा लगाये बैठा था, सफल हो गयी। जर्मनी के तेल-सम्राट् वेशुमार मुनाफ़े के स्वप्न देखने लगे, जो रूस के शकर कारखानेदारों से कम नहीं होनेवाला था परन्तु, पहले तो, बड़े-बड़े जर्मन बैंक लूट के माल के बंटवारे के सवाल पर आपस में लड़ पड़े। «Disconto-Gesellschaft» बैंक ने «Deutsche Bank» के लोलुपतापूर्ण उद्देश्यों की कलई खोल दी ; दूसरे, राकफेलर के साथ टक्कर की संभावना से सरकार भयभीत हो उठी, क्योंकि इसमें बहुत संदेह था कि जर्मनी को दूसरे स्रोतों से तेल मिल भी सकता था कि नहीं (रूमानिया का उत्पादन बहुत थोड़ा था); तीसरे, उसी समय जर्मनी का युद्ध की तैयारियों के लिए एक अरब मार्क के १९१३ वाले ऋण का प्रस्ताव स्वीकार किया गया था। तेल की इजारेदारी की योजना स्थगित कर दी गयी। कम से कम कुछ समय के लिए तो इस टक्कर में राकफेलर के “तेल ट्रस्ट" की विजय हुई।
बर्लिन की समीक्षा-पत्रिका «Die Bank» इस प्रसंग में लिखा कि बिजली की इजारेदारी स्थापित करके और पानी से सस्ती बिजली बनाकर ही जर्मनी तेल ट्रस्ट के खिलाफ़ लड़ सकता है। इसके साथ ही
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