पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१००

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[ ९९ ] इन के आदि बरन ते कुबजा उन के चित पै चढी है तरु नाम सागोन भामिन नाम गोपिन (कोपिन) बन नाम कानन मद्ध बरन ते गोपिन को ताते विसरायो है अबल नाम अजोर हुतासन अगिन मद्ध बरन ते जोग के संदेसो तुम ही लै आयो है हिम उपल नाम कर का तलाई नाम सरसी अंत के बरन ते कासी यह जोग तुम कासी में प्रकास करो हम तो स्याम के गुनन सो बांधी है ताको छोरनहार कोई नाहीं है जे वृज तजै अर्थ अज्ञान (आपन) समुझ के पति ते जो सब सुपदायक है यामें गोपिन को त्यागो कुबरी चित चढी है याते अर्थापति अलंकार है लच्छन । दोहा-जहां अर्थ हो व्यर्थ दै, और अर्थ ठहराइ । __ अर्थापति भूपन कहै, ताहि सुकवि ठहराइ ॥१॥१०५॥ सिंधुरिपुभषपतिपिता को सत्रु सैना साज। चलो आवत आज भूपर कर अन- पम काज ॥ सिंभु भष के पत्र वन दो बनै चक्र अनूप । देव कं को छत्र छावत सकल सोभा रूप॥ आड केसर की करी अधुरात का सुचि सोडू। लघट लटकी रजु का भू जुगजुबा रून जोड ॥ सिंधु- रिपु हित तासु पतनी मातु सुत के रंग। कोन सुंदर सारथी सुष.पूर पावन अंग॥ ब्रह्मचारी पिता माता मात नौतन जोर। करे बाहनहार दोऊ जगत की गति तोर ॥ हेत श्री जराज जीतन