पृष्ठ:साहित्यलहरी सटीक.djvu/१०१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

। १०० । चलो आवत भूर। सूर सब ते देषिये नंदनंद जीवनमूद ॥ १०६ ॥ सिंधु नाम दधि(ताको) रिपु बिलाई(ताको)भष मूस (ताको)पति गणेश पिता शिव सत्रु काम भूपै आवत है संभुभष कनक सुवरण के तरोना चक्र है देव नाम सुमन सुमन कहे फूल के नाम सीस को फूल को क्षत्र दियो है केसर की आड ताही की है धुर अरु लटकी रस्सी भू के जुबा सिंधु अरि (रिपु)अगस्त हित राम पतनी सीता माता भूमि सुत मंगल लाल बिंद स्वारथी ब्रह्मचारी सुक पिता व्यास माता मछरी सोहै नीतन नैन ते जोर के बाहन हार कीन्हे है नंद- लाल के जीतबे को यामें रसबदा अलंकार है बीर अंग सिंगार अंगी ते । चौपाई-अंग होत रस जहां प्रवीन । रसवत भूषन तहां सुचीन ॥१०६॥ पंथरिपु दिन परस सब दिन कीजिये सुष मान। बूझिये सब संत जनन सो कथा पुन्य पुरान॥ ध्याये सारंग पद को रहन को जो थान। कीजिये सुष पाय ताही गुनन को बरु गान॥ ओडिये नंद- नंद जू के चलतही हगवान। राषिये दंग मध दीजै अनत नाहीं जान ॥ इंद्र सत्र मुभाव मेरे चाह नाही आन। सूर सब दिन सिवा मोहितदेहि यह वरदान॥१०७॥ उक्त सपी की सपी प्रत कै हे सपी में यह चाहत हौं पंथ रिपु जो जमुना है ताको दिन नाम बार बार नाम जल ताको परस सब दिन रहे अर्थ सब दिन नहाइये अरु संत जन सों पुरान की कथा बूशिये अरु ध्याइये